दास्तानगोई के साथ मेरा सफ़र

दास्तानगोई की पहली किताब 2011 में आई थी. उस वक़्त दास्तानगोई के जदीद सफ़र को महज़ 6 साल हुए थे. लेकिन ऐसा नहीं लगता था कि बस 6 साल गुज़रे हैं, तब तो 6 साल लंबा अरसा लगता था, मगर जैसा की आम तौर पर होता है कि पहले मंज़िलें दूर लगती हैं मगर जब सफ़र परवान चढ़ता है तो मंज़िलें तेज़ी से पीछे छूटने लगती हैं. जब दास्तानगोई का सफ़र शुरू किया था तो ये तमन्ना थी कि काश अगले दस साल तक इस शौक़ को निभा सकूं, और आज देखिए की अलहमदुलिल्लाह फन के बारे में लिखते पढ़ते सोचते 15 साल गुज़र गए हैं और फन का मुज़ाहिरा करते हुए 11 साल मगर उसके बावजूद ये महसूस होता है कि सफ़र तो बस अभी शुरू ही हुआ है.

मंज़र एक बुलंदी पर और हम बना सकते
अर्श के इधर होता काश कि मकां अपना

जैसा कि मैंने पहली किताब में लिखा था मुझे दास्तानगोई के बारे में मुतलक़ कुछ ना मालूम था. मैं ही क्या ग़ालिबन दुनिया भर में फ़ैली हुई मेरी पूरी उर्दूदां नस्ल और शायद हम से पहले की नस्ल भी इस बाकमाल फन से पूरी तरह नाबलद थी, और अगर शम्शुर्रहमान फ़ारूक़ी साहब ने बीसियों साल की, जाँ फ़िशानी अर्क़रेज़ी और शगफ़-व-इंहेमाक से इन दस्तानों को जमा न किया होता और उस पर अपनी लाज़वाल किताब - साहरी, शायरी, साहब कुरानी-दस्तान-ए-अमीर हम्ज़ा का मुताला - ना पेश किया होता तो हम सब शायद आज भी लाइल्मी के उन्हीं समुंदरों में ग़ोता लगा रहे होते जिस में हम अपने तमद्दुन के बेशतर अबवाब को गुम कर चुके हैं. ऐसा क्यों हुआ और हमने दस्तानों का जौहर और उनके हुस्न-व-कमाल को क्यों नज़र अंदाज़ किया, इस अदबी और ग़ैर अदबी सवाल का जवाब भी आप को फ़ारूक़ी साहब की उस किताब में मिल जाएगा.

ये किताब 1997 में पहली दफ़ा शाया हुई थी और मैंने इसे 2000 में पढ़ा और ये किताब भी मेरे लिए उतनी ही होशरुबा साबित हुई जितनी वह तिल्सिम-ए-होशरुबा (और दीगर दास्तानें) जिन पर इस में रौशनी डाली गई है. उसी साल मैंने मिड-डे मुम्बई, जहां उस वक़्त मैं एक कॉलम लिखा करता था, उस में अपना पहला मज़मून लिखा. फिर चार-पांच साल मैं इस के बारे में सोचता रहा, लोगों से गुफ्तो शुनीद जारी रही फिर कहीं जाकर 2005 में उसके अव्वलीन मुज़ाहरे को स्टेज पर लाने में कामयाबी हासिल हुई. वो पहला मुज़ाहिरा किस तरह सामने आया और अनुशा और मैंने किस तरह शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी साहब की हौसला अफ्ज़ाई और निगहबानी में उसे तरतीब दिया ये बातें पहली किताब में आ चुकी हैं. तब से अब तक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी इस फ़न और इस के जवाहिरात पर 4 जिल्दें शाया हो चुकी हैं जिनकी तरतीब हस्बे ज़ैल है.

दास्तानगोई क्या है और इस अहद में कैसे और क्यों शुरू ? इन सवालों पर पिछली किताब में बहस की जा चुकी है. अब जो मैंने दीबाचे पे काम करने के लिए अपने काग़ज़ात और औराक़ टटोले तो एक बहुत दिलचस्प चीज़ सामने आई. 2007 में बैंगलूरू के मशहूर इदारे ‘इंडिया फॉउंडेशन फॉर दी ऑर्टस’, जो फुनूने-लतीफ़ा और डॉक्युमेंटरी फिल्मों वग़ैरह के कामों को माली इम्दाद देता है, उसने मुझे भी दास्तानगोई के लिए एक मुअक़्क़र वज़ीफ़ा दिया था. उस वज़ीफ़े की मदद से हमने दास्तानगोई की पहली किताब उर्दू में शाया की थी और मुंबई में दास्तानगोई का पांच साला जश्न मनाया था. उस वज़ीफ़े के हुसुल के लिए एक तआरुफ़ी और तौसीफ़ी ख़त जरूरत थी जो शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी साहब ने मुझे अता किया और उस में ये सतर रक़म की.... ⁃

दास्तानगोई के फन के लिए आदमी को इंट्लेक्चुअल (दानिशवर) होना भी ज़रूरी है. यानी दास्तानगोई सिर्फ़ वो नहीं जो स्टेज पर बैठ कर रटी रटाई कोई चीज़ सुना दे, दास्तानगो होने के लिए ज़बान, अदब और दीगर फुनूनो-उलूम पर भी ओबूर होना चाहिए. मगर वाक़िया ये है कि हम लोग अपनी ज़बान से इस क़दर महरूम हो चुके हैं और ज़बानी अदबपारों की जमालियात से इतने दूर हो गये हैं कि हम में से बेशतर इस तारीफ़ पर खरे नहीं उतर पाएंगे. और न ही अब उस्तादी-शागिर्दी के वो मदारिस हैं और न वो मेयार कि हम बरसों किसी उस्ताद के क़दमों की ख़ाक जमा करें और फिर जो मुश्ते-ग़ुबार अपने हाथ आए उसे अपनी खुशनसीबी जानकर लोगों के सामने ले जाएं. मौसीक़ी में बहर-हाल अभी भी बरसों की तबा-आज़माई और मश्क़ के बाद ही कोई उस्ताद अपने किसी शागिर्द को ये मौक़ा देता है कि वो ख़ुदमुख़्तार होकर अपने फन को पेश कर सके. मगर दास्तान-गोई के मैदान में हमारे ज़माने में उस्ताद का सरासर फुक़दान है और ना ही हमारे पास वो लगन है कि हम बरसों रियाज़ और मश्क़ करें. लेकिन बहर-हाल अच्छी नसर और शायरी का मुताला तो किया ही जा सकता है. लुब्बेलुबाब ये कि हम सब लोग जो आज के अहद में दास्तानगोई करते हैं वो सब के सब तिफ़ले मकतब हैं और अव्वल जमात में हैं और शायद हमें ता ज़िंदगी वहीं रहना है क्यों कि जो उस्ताद इस फन, इस सिंफ़ में अपनी जौलानियां दिखा चुके हैं हम उनसे बहुत दुर हो चुके हैं. हां मगर कोशिश और जद्दोजहद जारी रहनी चाहिए, तमाम उम्र, शायद कभी उम्र के आख़री पड़ाव में हम इस क़ाबिल हो सकें कि ख़ुद को इस बेमिसाल फन के नाकिस सही लेकिन जानशीन कह सकें -

जैसा कि फ़ारूक़ी साहब की तसानीफ़ से वाज़ेह है, हमारी रिवायती दासतानें, जो ज़्यादातर हज़रत अमीर हमज़ा और उनके रफ़ीक़ों के कारनामों पर मबनी हैं, वो इस क़दर रंगारंग और हैरतअफ़ज़ा और सहरअंगेज जादुई हैं कि उनके मुक़ाबले में शायद ही उर्दू का कोई फन पारा ठहर सके. हिंदुस्तान जन्नतनिशां वैसे ही दुनिया भर की किस्सा-कहानियों का सब से अनमोल गहवारा और मंबा और मलजा व मावा रहा है जहां से तमाम कहानियां शुरू होती हैं या फिर यहां आ के नया जन्म और नया रूप लेती हैं. फ़ारूक़ी साहिब ने अपनी तसनीफ़ से हमें ये बताया कि अमीर हमज़ा की ये दास्तानें क़िस्सा-कहानियों की उस शानदार आलमी रिवायत की एक तरह से मेराज हैं, यहाँ आकर इस मुल्क की तमाम कहानियों की शानदार धारे एक ऐसे आबशार की शकल लेते हैं जिसकी चमक दमक और रंग के आगे दुनिया भर के सारे क़िस्से क़िस्सा-ए पारीना हो जाते हैं. मेरी क्या औक़ात है जो इन दस्तानों की बुलअजबियों और गुलफ़िशानियों पर तब्सिरा कर सकूं मगर जो कुछ फ़ारूक़ी साहिब से सीखा है और जो कुछ थोड़ा बहुत थिएटर और अदब से शग़फ़ है उस की बिना पर ये मुनकसिराना ताईद ज़रूर कर सकता हूं की वाक़ई ज़बान और बयानिये का जो चकाचौंध कर देने वाला मवाद अमीर हमज़ा की दस्तानों में है, उनमें जो ड्रामाइयत है, उनके मुक़ाबले हमारे पास कुछ भी नहीं जो उनके सामने ठहर सके. जब मैंने दस्तानों पे काम शुरू किया था उस वक़्त मुझे ज़बान पर वो दसतरस तो थी नहीं, और न आज है, की मैं उसकी बारीकियों से लुत्फ़अन्दोज़ हो सकूं मगर हां चूंकि नाटक और ड्रामें वग़ैरा से थोड़ा बहुत रब्त ज़ब्त था इसलिए इन दस्तानों में जिस चीज़ ने मुझे ज़्यादा सर धुनने पर मजबूर किया वो इनकी ड्रामाईयात रफतार में तेज़ी थी. ऐसे-ऐसे क़िस्से, ऐसे-ऐसे मंज़र, ऐसी पेचीदगियां, मकाल्मे, ऐसे टर्न्स ऑफ़ प्लाट, ऐसी ऐय्यारियां की सिनेमा के सारे बड़े फिल्म निगार, मुकालम निगार और स्क्रिप्ट निगार जमा जो जाएं तो भी तिलिस्म-ए होशरुबा की एक जिल्द की नैरंगियों का मुकाबला न कर पाएं.

मगर अफ़सोस और नदामत इस बात पर है की दास्तानगोई के इस सफर में हम अभी तक इस असासे को कायदे से बरत नहीं पाए हैं. इस बेशक़ीमत असासे से अब तक हम सिर्फ 10-12 दास्तानें ही लोगों को सुना पा सके हैं. यक़ीनन इस नाकामी में बड़ी हद तक खुद हमारी कोताहियां शामिल हैं. ज़्यादातर लोग जो मेरे साथ दास्तानगोई करते हैं या पहले करते थे और वो लोग भी जो अब अपनी मर्जी से दास्तानगोई करने लगे हैं उनमें से बेश्तर उर्दू से वाक़िफ़ नहीं हैं. इसलिये वो इस ख़ज़ाने तक पहुंचने से क़ासिर हैं. मैं खुद भी इस ख़ज़ाने से बहुत महदूद इस्तिफ़ादा कर पाया हूं क्यूंकि मैंने सिर्फ तिलिस्म-ए होशरुबा का मुताला किया है और वो भी उसकी तमाम जिल्दों का नहीं. तो हमारी सूरत-ए हाल पे सिर्फ तरस खाया जा सकता है की एक बेशबहा और नादिर जवाहिरात का अम्बार हमारे सामने लगा हुआ है और हम अपनी कसमपुर्सी में उसके हुजुर में हाथ बांधे इस तरह खड़े हैं कि उसमें से एक रेज़ा भी नहीं उठा सकते. ये निहायत ही अफ़सोसनाक सूरत-ए हाल है.

मगर जहां उसके लिए हम अपनी ज़िम्मेदारी पूरी तरह से क़ुबूल करते हैं वहां ये भी है की उस ज़िम्मेदारी से अहदे बरआँ होने की राह में हमारी कमियों और नाअहलियों के एलावा भी कुछ चीज़ें हायल हैं. पहला मसला है ज़बान का. तिल्सिम-ए-होशरुबा और दीगर दास्तानों की जिस ज़बान पर ज़बान के माहिरीन सर धुनते हैं वही चीज़ उसके वसी पयमाने पर उसके फैलाव में सद्दे राह बन जाती है. जो नाज़रीन दास्तानगोई या दीगर असनाफ़ के प्रोग्राम देखने आते हैं उन में से बेशतर तिल्सिम-ए-होशरुबा की मामूली ज़बान को समझने से भी क़ासिर हैं चेजाय कि इन दस्तानों में इस्तेमाल हुए पैकरों और इस्तेआरों और लफजियात, बारीकियों और कुवातों को समझ सकें. आमतौर से अब हमारे मुल्क में लोग मौजूदा उर्दू समझने की सलाहियत भी नहीं रखते और जिन्हें हम आज के उर्दूदां कहते हैं वो खुद भी तिल्सिम-ए-होशरुबा को पढ़ने और समझने की इस्तिताअत महरूम हैं उस सूरत-ए-हाल में एक आम नाज़िर से ये तवक़्को रखना कि वो इस ज़बान से लुत्फ़ उठा सकता है बईद अज़ इमकान है. मज़ीद बरां, जैसा मैंने बारहा कहा है कि जो लोग थियेटर हाल वग़ैरह में प्रोग्राम देखने आते हैं वो उर्दू नहीं समझते, और जो लोग उर्दू समझते हैं वो थियेटर तक नहीं जाते. ये नहीं कि हमने कोशिश नहीं की और हमें कामयाबी नहीं मिली मगर ये नहीं सच है कि उसकी कामयाबी ख़ास हालत और एक ख़ास तरह के शायक़ीन पर मुनहसिर है जो हर बार और हर नुमाइश में मयस्सर नहीं हो सकती.

दरअसल दास्तानों की ज़ुबान उसकी चाशनी का शक्कर है और उसमें प्लॉट और किरदारों की गहमागहमी वो मीठी गोलीयां है जिनके ज़रिए हम उस ज़बान को ग़ैर ज़बानदां लोगों तक पहुंचा सकते हैं. मगर उसमें ये खदशा हमेशा बना रहता है कि उस पेशकश को एक लतीफ या हसीन लेकिन बेमसरफ और बेसरर सी चीज़ समझ लिया जाए जो एक नादिर फ़न की तरह वक़्ती तौर पर आपको लुभा तो सकती है मगर कोई गहरी छाप नहीं छोड़ती. ये सच है कि दास्तान के बारे में आम तौर पर उस इल्ज़ाम को कि वो हलकी फुलकी और वक़्ती तौर पे महज़ूज़ होने वाली चीज़ है, फ़ारुक़ी साहब पूरी तरह रद्द कर चुके हैं मगर बहरहाल रिवायती दास्तानों को उनके खलीके (Ethos) से अलग नहीं किया जा सकता. उनकी ज़बान और अंदाज़-ए-बयान कोई छिलका या लिबास नहीं जिसे अलग किया जा सके, दास्तान का तरज़े बयान और उसकी खुशगुफ्तारी, नए अल्फ़ाज़ की ईजाद, उसकी शगुफ्तगी और तनव्वआ उसकी रूह है. दास्तान से सिर्फ़ कहानियों और किस्सों को काटकर अलग कर लेना उन्हें बेतरह मजरूह करने के मुतरादिफ़ होगा. और ये खलकिया सरासर ज़बान की इनतिहाई तखलीकी सूरतों से इबारत है. किस्सा मुख़तसर ये कि -

अमीर हमज़ा की दासतानों का जादू हमेशा सर चढ़ कर बोला है और आगे भी बोलता रहेगा मगर आज के ज़माने में उन दास्तानों के इलावा भी बहुत से ऐसे अफ़साने हैं जो सुनाए जाने का तक़ाज़ा करते हैं इस लिए रिवायती दास्तानों को इख़्तियार करने के साथ-साथ मैंने और ऐसी चीज़ें तशकील दीं हैं जिन्हें दास्तानज़ादियां कहें तो नामुनासिब ना होगा. ये दास्तानज़ादियां बिल-वासता हमारे अहद की और दीगर सच्चाइयों और पहलुओं पर रोशनी डालती हैं जिन से हमारे सामईन और नाज़रीन बेतकल्लुफ समझ सकते हैं.

तो बहरहाल वक़्त का तक़ाज़ा था कि अमीर हमज़ा की मिज़ाज के इलावा और भी तरह की दास्तानें लोगों को सुनाई जाएं. इसकी शुरुआत तो 2007 में ही हो गई थी जब मैं और अनुशा ने मिलकर तक़सीम-ए-हिंद पे एक दास्तान मुरत्तब की थी जो पहली जिल्द में शामिल है. उस दास्तान को बहुत पज़ीराई मिली और खुद फारूक़ी साहब ने उसकी तारीफ़ करके उस पर सनद दे दी तो हमारी मज़ीद होसला अफ़ज़ाई हुई.

उसी साल मशहूर समाजी और फलाही कारकुन डॉक्टर बिनायक सेन को सेडीशन(Sedition) के इल्ज़ाम में बेजा तौर पर गिरफ्तार कर लिया गया. उनकी दिफ़ाई कारगरदगियों के तहत मुझ से कुछ पेश करने को कहा गया तो मैंने एक छोटी सी दास्तान-ए-सेडिशन तरतीब दी जिस में रिवायती दास्तानों के रंग में बिनायक सेन और छत्तीसगढ़ के हालात की अक्कासी की गई थी. बाद में उनके रिहाई की मुहिम ने जब ज़ोर पकड़ा तो उस दास्तान में मज़ीद इज़ाफ़ा करते हुए हमने इस मजहका खेज मुक़दमे को भी हदफ़ बनाया जो उनके खिलाफ़ दायर किया गया था. ये मुकम्मल दास्तान-ए-सेडिशन 2011 में तैयार और पेश की गई उसकी पेशकश को बहुत दाद मिली. फिर उसी साल मुंबई और पुणे में उस दास्तान को खुद डॉ. बिनायक सेन ने बनफ़से नफ़ीस सुना उसे सुनकर वह और उनकी अहलिया इलीना सेन उस से इतनी मुतास्सिर हुईं कि दोनों ही अश्कबार हो गये. पुणे की पेशकश में तो बड़ी रुकावटें और जहमतें आईं क्यों कि वहां आज़म कैंपस में पेशकश को शिद्दतपसंद तंज़ीमों ने निशाना बनाया, फिर हंगामी तौर पर वहीं मज़दूरों की एक इंक़लाबी तंज़ीम ने अपने यूनियन के दफ्तर में उसका इजलास रखा और बहुत सख्त पुलिस के पहरे और इंतेज़ाम में वह नुमाइश वहीं मुनाक़िद हुई और वहां मौजूद मराठी समाजी कारगुजरों ने उस को बहुत सराहा. इस दास्तान की नुमाइश वक़्तन फ वक़्तन पर एक समाजी ज़िम्मेदारी के तौर पर मुख़तलिफ़ हुक़ूक़-ए-इंसानी और समाजी और फलाही इदारों के लिए होती रही हैं और होती रहती हैं. मगर इसकी जो एक बहुत ही यादगार पेशकश थी वो 2016 में जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में मुनाक़िद हुई जब उस यूनिवर्सिटी के कुछ तलबा पर जाबिराना तौर पर सेडिशन (गद्दारी) का इल्ज़ाम लगा कर उनपर मुक़दमा चलाया गया. जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के बेइंतेहा तनाव से और जोखिम से भरे हुये माहौल में इस नुमाइश को पेश करना ख़तरे से खाली नहीं था. मैं तो किसी वजह से उसमें शामिल ना हो सका था मगर हमारी प्रोड्यूसर अनुशा रिज़वी हमारी पूरी टीम को लेकर पूरी हिम्मत और (दास्तानी ज़बान में) जवाँ मरदी के साथ वहां मौजूद थीं और वो दास्तानगोई इस क़दर कामयाब रही कि उस के बाद यूट्यूब और फेसबुक पर कोई 60-70000 हज़ार लोगों ने ना सिर्फ़ उसे देखा बल्कि और मंगलेश डबराल और जावेद सिद्दीक़ी जैसे दानिशमंदों और अदीबों ने उसकी पज़ीराई की. हाल ही में इंडिया हबीटेट सेंटर में बम्बई के मश्शाक़ दास्तानगोयों राणा प्रताप और राजेश कुमार ने पहली बार टिकट लगा के इस दास्तान को पेश किया जिसमें बहुत से नामवर सियासतदां और सरकारी अफसरान कपिल सिब्बल और नजीब जंग भी मौजूद थे. ये दास्तान अवाम के दिलों में घर कर रही हैं लगता है कि जब तक मुल्क में सियासी इंतेशार बरपा है तब तक दास्तान-ए-सेडिशन की मक़बूलियत बढ़ती ही रहेगी जैसा कि फैज़ साहब की उस मशहूर नज़्म में है-

ये हाथ सलामत है जब तक
इस खूँ में हरारत है जब तक
इस दिल में सदाक़त है जब तक
इस नुत्क़ में ताक़त है जब तक
इस तौक़ -ओ सलासिल को हम तुम
सिखलाएगें सोरिश-ए-परबत ओ- नय

इसमें कोई शक नहीं कि जदीद हिंदुस्तानी नौजवान की तरबियत कुछ इस तरह से हुई है की हमारा सियासी शऊर अब हमारे फन-व-अदब के नमूनों से भी कुछ बग़ावत का तक़ाज़ा करता है. शायरी की हद्द तक तो उर्दू का मिज़ाज हमेशा बाग़ी रहा है चाहे वो इक़तेदार दुनियावी रहा हो या आस्मानी । उर्दू शायरों ने हमेशा उसके ख़िलाफ़ रवैय्या इखतियार किया है और उसका मज़ाक़ उड़ाया है. नस्र और ड्रामा और दीगर फुनून-उलूम में बग़ावत और सामाजी एहतेजाज की रिवायत को तरक़्क़ीपसंद तहरीक ने परवान चढ़ाया और अब हम उस लय के इस क़दर आदी हो चुके हैं की हमें अपनी तमाम अदबी और फनकारना कविशों में वही रंग भाता है, भले वो एहतेजाज और बग़ावत कभी कभी बिल्कुल सतही होके नारेबाज़ी की शकल ही ले क्यों ना ले लें. अब हम में वो अहलियत तो नहीं रही कि बक़ौल मीर अनीस “एक फूल का मज़मूँ हो तो सौ रंग से बांधूं.” अब मज़ामीन भी सिमट गये हैं और एहतेजाजी भी यकरंग सा हो गया हैं. मगर उसके बावजूद मुझे यकगोना सुकून है की दास्तान-ए-सेडिशन उन पामाल से महफूज रही है जो आम तौर पर हमारे यहां एहतेजाजीअदब लिटरेचर ऑफ प्रोटेस्ट(Literature of Protest)का ख़ास्सा बन गये हैं.

सन 2011 में ही मुझे कोलकाता से एक तंज़ीम ने रवींद्रनाथ टैगोर की डेढ़ सौवीं सालगिरह की तक़रीब में टैगोरपर एक दास्तानपेश करने की दावत दी. मैंने बहुत सर मारा मगर कुछ समझ में ना आया . मैं इस समंदर, जो टैगोर की तख़लीक़ी वुसअत है, उसकेकिस किनारे से एक चुल्लू भी पानी उठा सकूँ. टैगोर का कैनवस इतना वसी है, शायरी, नॉवेल, ड्रामा, नाट्य संगीत, मुसव्वरी, मौसीक़ी, विश्वभारती, सियासी कारकून, ज़िन्दगी और उनके कारनामों का कोई एक दास्तान कैसे अहाता कर सकती है. मुझे याद आया कि मैंने सत्यजित रे की फिल्म घरे-बैरे देखी थी जो टैगोर के नॉवेल पर बनी थी. फिर मुझे ख्याल आया की मैंने अपने बीए के निसाब में भी सुमित सरकार की बेहतरीन निसाबी किताब मॉडर्न इंडिया में उस नॉवेल का ज़िक्र पढ़ा था. सरकार ने दिखाया था की किस तरह टैगोर ने पहले गोरा लिख के शिद्दतआमेज़ वतनपरस्ती की हिमायत की थी मगर फिर 1905 की तक़सीम-ए बंगाल के खिलाफ़ स्वदेशी तहरीक की ज़्यादतियों ने उन्हें सरासर क़ौम परस्ती या नेशनलिज़्म से ही मुनहरीफ़ कर दिया था. मैंने नॉवेल का अंग्रेज़ी और हिन्दी तर्जुमा पढ़ा । आम तौर पर नॉवेल दास्तान के पैराए में सुनाना आसान नहीं होता.

*नॉवेल दास्तान नहीं* बल्कि दास्तान नॉवल की ज़िद है। मगर चूँकि इस नॉवेल की साख़्त ऐसी थी की उसमें तीन किरदार महज़ अपने मुकालमों और खुदकलामियों से कहानी का सिलसिला आगे बढ़ाते हैं. खुद अदीब की कोई बयानिया आवाज़ नहीं है इसलिए इसे ज्यों का त्यों भी सुनाने का बीड़ा उठाया जा सकता है. मैंने उन दोनों तर्जुमों की मदद से दास्तान तरतीब देनी शुरू की. दास्तान की आग़ाज़ में मैंने महात्मा बुध की जातक कथाओं से इस्तिफ़ादा कर के एक तआरुफ़ी खाका खींचा, फिर उसमें 1857 के कुछ नादिर अवामी गीतों की मदद से अंग्रेज़ी राज की सेना और उसके खिलाफ़ नफ़रत दोनों को उजागर करने की कोशिश की. इस दास्तान के पहले कुछ सफ़हात सिर्फ़ मेरी तहरीर हैं ताकि नॉवेल को दास्तानी रंग दिया जा सके. ये दास्तानी रंग क्या होता है और स्टेज पे उसका इलतेज़ाम कैसे रखा जाए इस पर मैं आगे बहस करूँगा.

बहरहाल तो उस नावेल में दास्तानी रंग भरने के बाद मैंने ये ज्यादती की, कि एक तारीखी धारे को मोड़ दिया. मामला ये है की जब से जदीद खड़ी बोली हिन्दी का उरूज हुआ है देखा ये गया है की हिन्दी और उर्दू तहरीरों से उर्दू के अल्फ़ाज़ हटा के सक़ील और खुद्साख्ता हिन्दी के अल्फ़ाज़ भर दिए जाते हैं ताकि ये तहरीर पाक साफ़ हो जाए. ये मुहिम डेढ़ सौ बरसों से जारी है. लेकिन आजकल ज्यादा ज़ोर पकड़ रही है. तो मैंने इस बार क्या किया की घरे बैरे के जिस हिन्दी नुसखे से मैंने इस्तिफादा किया था उसके बहुत से मुकालमों को ज्यूं का त्यूं मुस्तआर ले के उसमें से हिन्दी अल्फ़ाज़ निकाल के उर्दू अल्फ़ाज़ डाल दिए. बहरहाल वो दास्तान कोलकाता में मौलाना आज़ाद मेमोरियल के लॉन में सुनाई गई और ठेठ बंगाली बाबूओं ने उसे हाथों हाथ लिया. फिर उसकी दो तीन पेशकश और हुइ , दिल्ली में IIC में और JNU में ये दास्तान भी बहुत कामयाब हुई. उस दास्तान को सुनने के बाद एक नौजवान अदीब और बंगलादा, प्रज्ञा तिवारी, जो फिलहाल वाइस इंडिया नाम की तंज़ीम की सरबराह हैं, उन्होंने मुझे एक ऐसी मुबारकबाद से नवाज़ा जो मैं आजतक भुला नहीं सका. उन्होंने कहा की वो टैगोर और सत्यजीत रे दोनों की बहुत बड़ी शायक फैन (Fan) हैं. ख़ासतौर से घरे बैरे उनके बेहदपसंदीदा नॉवेलों में से एक है जिसे उन्होंने बहुत बार पढ़ा है.

उनका कहना था की मेरी दास्तान-ए घरे बैरे उन्हें सत्यजीत रे की फिल्म से बेहतर लगी और ख़ासकर मैंने उसमें निखिल नामी किरदार को जिस तरह बनाया था , तहरीर और पेशकश दोनों में, उस से निखिल के किरदार को एक नया वक़ार और (मॅसक्युलिनिटी) अता हुई जो उन्हें ख़ासकर पसंद आई.

जितनी मेहनत से ये दास्तान तैयार की गई थी उसके मुक़ाबले इसके तमाशे कम ही हुए. दरअसल घरे बैरे में टैगोर ने ऐसे बहुत से सवालों का अहाता किया था जो हमारे अहद में, ख़ासकर पिछले तीन चार साल में बहुत ज़्यादा इशतेआलअंगेज़ रंग अख्तियार कर चुके हैं. गौकशी, वन्दे - मातरम , वतनपरस्ती और क़ौमियत जो अपने तशद्दुदआमेज़ रंग पर खुदफरेफ़्ता हो गई है, मुसलमानों से नफ़रत, इन सब सवालों को टैगोर ने बरता और कड़ी मुज़म्मत की. निखिल कहता है ‘अपने देश से प्यार मुझे भी है मगर उसके लिए दूसरे मुल्कों की मुज़म्मत मुझे गवारा नहीं’ और ये ‘अगर मुल्क की तरक़्क़ी मक़सूद है तो मुसलमानों को साथ लेकर चलना होगा.’

हमारे आज के बेशतर फ़र्ज़ी और खुदसख्ता मैन्यूफैक्चर्ड (Manufactured) सियासी मसायल और दावों पर गुरुदेव सौ साल पहले ही अपनी मुहर तन्सीख लगा चुके हैं. मगर इनमुतालिबात से इस तरह बेबाक और साफ इनकार करना टैगोर के बस में तो था, हमारे आप के लिए आज की फ़िज़ा में उसे दोहराना भी आसान नहीं है. और फिर ये क़िस्सा बेहद संजीदा है. लंबे लंबे मुकालमे हैं, दाखीली कशमकश की बारीक अक्कासी है और फिर तर्जुमे की ज़बान में वो बात नहीं जो आपको मरऊब कर सके या अपने सहर में ले सके. इन सब वोजूहात से इस दास्तान को सुनना और सुनाना दोनों गोया एक भारी पत्थर उठाना है. इसी लिए अब तक के मेरे सफ़र में इस दास्तान को बनाना और सुनाना शायद सबसे मुश्किल और आज़माइश का मुक़ाम था और अल्हम्दुलिल्लाह की मैं इस से अहदाबरआँ हो सका. उम्मीद है की इस दास्तानके शायक़ीन दोबारा पैदा होंगे और हम लोग इसे दोबारा सहबारा सुनाने के फ़र्ज़ को अदा करने में कामयाब होंगे.

2011 में ही दिल्ली की मायानाज़ पब्लिशर और तंज़ीम कथा से एक मुहतरमा शगुन गहलोत मुझ से मिलने आईं वो खुद भी एक क़िस्सख्वां हैं और बच्चों को कहानियाँ सुनाती हैं. उन्होंने मशहूर राजस्थानी अदीब विजय दान देथा की कहानियों के दो जिल्दों के अंग्रेज़ी तर्जुमे इनायत किए. ये तर्जुमे मिशैगन यूनिवर्सिटी की एक नाहिर क्रिस्टी मेररिल ने किए थे. मैं देथा साहिब के नाम और काम से थोड़ी बहुत वाक़फ़ियत रखता था मगर जब मैंने यकसुई से उनका काम पढ़ा तो दम बखुद रह गया. देथा साहिब ने ज़िंदगी भर राजस्थान में घूम घूम के वहां की मुख़्तलिफ़ और मुतनव्वो अवामी कहानियां जमा की थीं. चरवाहों से, किसानों से,औरतों से, मुख़्तलिफ़ अहले हिरफ़ा और पेशों से तमाम तरह के क़िस्से कहानियां जमा कर के उनमें अपना अदबी बघार लगा कर राजस्थानी ज़बान में ही उन्हें छापने का सिलसिला शुरू किया. वो अपना बघार इस तरह लगाते थे की अवामी कहानियों को थोड़ा तोड़ मरोड़ के उसमें इन चार चीज़ों की मुज़म्मत शामिल कर दिये थे: राजा, साहूकार, मर्दाना या पिदरशाही निज़ाम और भगवान.

इस तरह उनकी तमाम कहानियों में अवामी लुत्फ़ और शोखी के साथ साथ एहतेजाज का नमक भी शामिल हो गया. इन कहानियों को जमा कर के उन्होंने बाताँ नी फुलवारी के नाम से 18 जिल्दों में छपा और इस तरह हिन्दी के मुक़ाबले ना सिर्फ़ राजस्थानी ज़बान को कायम किया, बल्कि एक पूरी क़ौम और खित्ते का बेशक़ीमती सरमाया हमारे सामने ला कर रख दिया.

विजयदान देथा ने अपने दोस्त और रफ़ीक़ कोमल कोठारी के साथ मिलकर रूपायन संस्थान बनाया जो राजस्थान की ज़बानी विरासत की निगहबानी और उनकी बाज़याफ़्त में बेइंतेहा सरगर्म रहा है. कोमल कोठारी और देथा दोनों की तारीफ़ करने के लिए हमें एक अंग्रेज़ी इस्तेलाह का इस्तेमाल करना पड़ेगाः ऑर्गॅनिक इंटेलेक्चुयल, यानी आम ज़बान में कहें तो मिट्टी से उगे हुए दानिशमंद. ये वो दानीश्वर नहीं हैं जो मग़रिबी फलसफ़ियों की तलछट अंग्रेज़ी में पढ़के अपने हमवतनों के सामने चबाया हुआ भाषण उगलने लगते हैं. कोठारी बयकवक़्त सक़ाफ़ती करकून भी थे, माहिर-ए- मौसिकियात (म्यूज़िकॉलजिस्ट)भी, माहिर-ए-खलकियात (एथनोग्राफर) भी, माहिर-ए-माहोलियात (इंवायरन्मेंटलिस्ट)भी और बज़ाते खुद एक अजायब-खाना (म्यूज़ियम) भी. उनके बारे में बात करने के लिए सिर्फ़ ये कहावत दोहरा देना काफ़ी है कि, ‘जब एक क़िस्सागो की मौत होती है तो एक पूरा कुतुबख़ाना उसके साथ फ़ना हो जाता है.’

कोठारी और देथा दोनों के सरोकार अवामी थे. वो अपने देश के लोगों, उनकी रस्मों, उनके अतवार, उनकी उस्तूरी और देवमलाई कहानियों, उनकी खेती-किसानी के तौर तरीक़ों सब को तौक़ीर की नज़र से देखते थे, उनकी क़दर करते थे, उनके यहां अपने देश की असास के लिए तहक़ीर का जज़्बा नहीं था, इज़्ज़त और क़दर का जज़्बा था. वो अपने लोगों से सच्चा लगाव रखते थे. ये जो हम आज अपने इर्द गिर्द मांगनियार और राजस्थानी मौसीक़ी के दीगर अस्नाफ़ का ओरूज देख रहे हैं ये कोमल कोठारी की ही काविशों का नतीजा है. उन्होने राजस्थानी मौसीक़ी को बैनुलअक़वामी शोहरत दिलवाई और हमारे क्लासिसी मोसीक़ार जो इन अवामी मौसीक़ारों को हिक़ारत की नज़र से देखते थे उनके शाना ब शाना लाकर मुतामक्किन कर दिया. कोलकाता के मशहूर सक़ाफती तनक़ीदनिगार रुस्तम भरूचा ने कोमल कोठारी के साथ अपने मुज़किरात की एक पूरी किताब मुरत्तीब की है जिसका उनवान ही राजस्थान है और उसे पेंग्विन ने छापा है. उस किताब को पढ़ कर मालूम होता है कि कोठारी साहिब ना सिर्फ़ मौसीक़ी के फन पर दसतरस रखते थे बल्कि ये भी जानते थे कि कौन सा साज और आला कहाँ बनता था, किस लकड़ी से बनता था, राजस्थान के किस ख़ित्ते की ज़मीन किस तरह की ही, किस इलाक़े के क़बायली किस तरह माआश् के लिए एक जगह से दूसरी जगह सफ़र और हिजरत करते थे और उससे उनके फ़न और हुनर पर क्या असर पड़ता था. ये निगाह हिन्दुस्तान जन्नत निशान में कम ही लोगों को नसीब हुई है.

ये महज़ इत्तेफ़ाक़ नहीं था की विजय दान देथा के क़रीबी शरीककारों (कोलैबोरेटर्स) में हबीब तनवीर का नाम सर-ए-फिहरिस्त है, जिनका मशहूर नाटक चरणदास चोर देथा के ही क़िस्से पे मबनी था.

बहरहाल, देथा की कहनियों में जो रंग है वो दस्तानों से बहुत मुनाफ़िकत रखता है क्यूंकि दस्तानों में भी उसी तरह की हिकायतों फेबल्स को बरता जाता है जो देथा की कहानियों में होती हैं. हमारी क़दीम पंचतंत्र की कहानियां जो सरज़मींन-ए-अरब पर पहुंच के कलीला-व-दिमना के नाम से मारूफ़ हुईं, फिर दोबारा हिन्दुस्तान जन्नत निशान लौटीं और इसी तरह हितोपदेश, कथा सरित्सागर, वगैरह ये तमाम कहानियां हिन्दुस्तान जन्नत निशान से अरब-व-अजम और फिर वहां से युरोप और फिर वहां से ग़ोता लगाती हुई वापस हिन्दुस्तान जन्नतनिशान लौट रही हैं. इसलिए देथा की कहानियों में हातिम ताई, मुल्ला नसरुद्दीन और दीगर क़िस्से कहानियों की झलक भी दिखाई देती है. ये कहानियां हमारी सरिश्त में हैं इसलिए आज भी उनका जादू सर चढ़ के बोलता है.

देथा की कहानी ‘दुविधा’ पे पहले मणिकौल ने फिल्म बनाई थी फिर उसके बाद अमोल पालेकर और शाहरुख ख़ान ने पहेली के नाम से फिल्म बनाई. मगर मुझे जिस कहानी ने बेइंतेहा मुतास्सीर किया वो थी “चौबोली” की कहानी. इसमें भी अलिफ लैला की तरह मरकाज़ी किरदार एक औरत क़िस्सागो का है. मैंने उसका अंग्रेज़ी से तर्जुमा किया और उसमें मीर हसन की मसनवी सहरुल बयान, नज़ीर अकबराबादी का कलाम, 18वीं सदी का एक शिव भजन, और तिलिस्म-ए होशरबा की बाज़ चीज़ें डाल के उसे दास्तानी रंग देने की कोशिश की. अलहम्दुलिल्लाह वो कोशिश इतनी कामयाब हुई और उस दास्तान का जादू इतना सर चढ़ के बोला की अब तक उस दास्तान-ए-चौबोली की कोई 400 के क़रीब नुमाइशें हो चुकी हैं कोई भी उन्हें सुनाए, चाहे नौ मश्क़-ए-सुखन हो या कुहना दास्तानगो, उसे सुनाके बेइंतेहा दाद उसूल करता है.

हबीब तनवीर के ड्रामों की ख़ुसूसियत थी की वो अवाम और खवास दोनों तबक़ों में यकसां तौर पर मक़बूल थे, इसी तरह हमारी चौबोली भी अवाम और खवास हर तबक़े में और हिन्दुस्तान के हर शहर में, दिल्ली, लखनऊ, मुंबई, पटना और जयपुर में सुनी और सुनाई जाती है और हमेशा अपना लोहा मनवाती है. (ये ख़ासियत दरअसल हिन्दुस्तान जन्नतनिशां की तमाम लोक कलाओं, क़िस्सों, अवामी शाहकारों में पाई जाती है की वो आज भी अवाम-ओ ख़वास दोनों को यकसां तौर पर लुभा सकते हैं.) जश्न-ए-रेखता जो अब उर्दू के सिलसिले से बैनुलकवामी शोहरत की नुमाइश और मेला बन चुका है - 2015 जश्न-ए-रेख्ता मे दारैन शहिदी और मुझे ये शरफ़ हासिल हुआ की हमने ये दास्तान बहुत ही मुअक़्क़र और आला पाए की सामईन को सुनाई उनमें शम्सूर्रहमान फ़ारूक़ी, इंतेज़ार हुसैन साहेब और मुअ र्रिख शाहिद अमीन साहिबान जैसे दानीश्वर मौजूद थे. हुस्न-ए इत्तेफ़ाक़ देखिए की चौबोली की चार कहानियों में से एक कहानी को इंतेज़ार साहेब नर-नारी के नाम से पहले ही अफ़सानवी रंग दे चुके थे. अगर देथा का कोई उर्दू नेमलबदल हो सकता है तो वो इंतेज़ार साहेब थे और ये हमारे लिए ऐन ख़ुशनसीबी का बाइस था की उनकी एक तहरीर को हमने दूसरे रंग से उन्हीं के सामने पेश किया. ये पूरा शो रेखता और यूट्यूब दोनों पर मौजूद है और आज भी इसके देखने वालों में रोज़ बरोज़ इज़ाफ़ा हो रहा है.

तुर्फ़ा तमाशा देखिए की राजस्थान की एक अवामी कहानी को विजयदान देथा तहरीर में लाए, फिर अमरीका की एक स्कॉलर ने उसक तर्जुमा किया, फिर मैंने उसे उर्दू में मुनतक़िल कर के ज़बानी तौर पर लोगों तक पहुंचाया. 2012 में जब मैं मिशीगन यूनिवर्सिटीमें विज़िटिंग फेलो बन के पहुंचा तो मुझे क्रिस्टी मेरिल से मुलाक़ात का शर्फ़ हासिल हुआ और फिर हमने उस यूनिवर्सिटी में एक जलसा किया जिसमें उन्हों ने अपना अंग्रेज़ी तर्जुमा और मैंने अपनी उर्दू दास्तान को पेश कर के एक अनोखी कहानी के अनोखे सफ़र का मुनफरिद तजुर्बा हासिल किया.

उन्हीं अय्याम में दिल्ली यूनिवर्सिटी में एक ग़ैर ज़रूरी तनाज़ा खड़ा हो गया । उसका मरकज़ था अवामी क़िस्सों के माहिर, शायर, नक़्क़ाद और नज़रियसाज़ ए.के. रामानुजन और उनकी किताब ३०० रामायण रामनुजन ने उस वक़्त हिन्दुस्तानी लोक कहानियों को विक़ार बख्शा जब कोई उन्हें दर खोर-ए-ईतेना भी नहीं समझता था. उन्होंने 1950 के अशरे में घूम-घूम कर जुनूबी हिंद की तमाम ज़बानों के अवामी क़िस्से-कहानियों को जमा करना शुरू किया और फिर उन्हें मंज़र-ए-आम पर लाने और शाया करने का बीड़ा उठाया. रामानुजन तमिल, कन्नड, संस्कृत, अंग्रेज़ी और मलयालम पर यकसां क़ुदरत रखते थे. उन्होने हिन्दुस्तानी सक़ाफत, हिन्दुस्तानी फ़िक्र, तहज़ीब और विरासत पर मायानाज़ काम किया जो दुनिया भर के आलिमों और मुहक्ककीन के लिए मशाल-ए-राह साबित हुआ. ‘स्पीकिंग ऑफ शिवा ’(Speaking Of SIVA)और ‘इज़ दियर ऐन इंडियन वे ऑफ थिंकिंग’(Is There An Indian Way Of Thinking) के इलवा फोक टेल्स फ्रॉम इंडिया (Folk Tales From India) और दीगर किताबों में उन्होंने हिन्दुस्तान की मुख़्तलीफ़ ज़बानों की अवामी कहानियों को दुनिया के सामने फ़ख़र से पेश किया. अपनी तहक़ीक़ के दौरान रामानुजन ने दरयाफ़्त किया की हिन्दुस्तान के खित्ते खित्ते में रामायण और रामलीला के सैकड़ों नुस्खे, बयानीए और रिवायतें मौजूद हैं जो एक दूसरे से मुख़्तलीफ़ हैं और बाज़ ऐसे हैं जो दूसरों से मुन्सलिक हैं. मसलन जैन रामायणों में राम और सीता को बहन भाई बना के पेश किया गया है, या कुछ रामायणों में रावण को बहुत वजीह और बेमिसाल किरदार दिखाया गया है.

रामायण और रामलीला की ये रूप तुलसी और वाल्मीकि की रामायणों से मुख़्तलीफ़ हैं और अपने अपने इलाक़ों में बेहद मक़बूल हैं. रामायण की मुतन्नव और गुनगों कैफियात और मुख़्तलीफ़ ज़ख़ीरों पे भरपूर तहक़ीक़ कर के रामानुजन ने एक मज़मून लिखा जो‘थ्री हंड्रेड रामायनस’(Three Hundred Ramayanas) के नाम से मशहूर हुआ. दर हक़ीक़त हर हुब्बुलवतन हिंदुसानी के लिए ये बात बाइस-ए-फख्र व इतमीनान थी कि रामायाण इस देश की मिट्टी में इस तरह सरायत कर गई है की ज़र्रे ज़र्रे में उसके निशानात मौजूद हैं और हर एक अपने रंग ढंग से उसे याद करता और बरतता है. रामानुजन का ये मज़मून बर्सों पढ़ा गया और पढ़ाया गया मगर 2006 में दिल्ली यूनिवर्सिटी कुछ तंग नज़र और कोताह-अंदेश लोगों ने इस पर तनाजा और फ़साद शुरू कर दिया की ये हिंदुओं और हिंदुस्तान और रामायण की तौहीन है. अलमिया देखिए की जो रिवायत और जो आलिम हमारे लिए फख्र का सबब थे उन्हें हमने अपने लिए नदामत का सबब बना लिया. ये हंगामा चलता रहा और 2011 में यूनिवर्सिटी ने इसे अपने निसाब से हटाने का फ़ैसला कर लिया. उस वक्त दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामजस कॉलेज के जांबाज़, बेबाक और बेमिसाल उस्ताद मुकुल मांगलिक जो तलबा की कई नस्ल के लिए अपनी उलुलअज़मी और सामाजी वाबिस्तगी (Commitment) की वजह से मुम्ताज़ रहे हैं उन्हों ने रामानुजन के नाम का झंडा उठाया और एक दो दिन का जश्न उनके नाम पर रखा. ये वही मुकुल मांगलिक हैं जो पिछले एक दो साल के हंगामों के बावजूद रामजस कॉलेज में चट्टान बने हुए हैं और तमाम फिस्ताई ताक़तों के सामने अपने तलबा के साथ खड़े हुए हैं. उस दो रोज़ा सेमिनार में उन्हों ने मुझ से रामानुजन की बाबत कुछ करने के लिए कहा. इस तरह, महज़ एक हफ्ते की मोहलत में वो छोटी सी पेशकश तैयार हुई जो मेरी किताब में दास्तान “जय राम जी की” के नाम से शामिल है. इसे तैयार करते वक़्त जामिया के साबिक़ प्रो. वाइस चॅन्सेलरप्रोफेसर मुजीब रिज़वी मरहूम बेइंतेहा मददगार साबित हुए. यहाँ कि पद्मावत और दीगर सूफ़ी प्रेम आख्यानों पर उनकी महारत ने मुझे बर्सहा-बरस तक उनसे मुस्तफीद होने का मौक़ा दिया. इस दास्तान में रामानुजन के उस मुतनाज़ा फीह मज़मून के इलावा मैंने रामानुजन की जमाकर्दा कुछ और लोक कहानियों को शामिल किया और फ़ारसी की चंद रामायणें जैसे बादशाह अकबर की मुल्ला बदायूंनी की निगरानी में तैयार किया गया फ़ारसी तरजुमा और मसीह पानीपती का तरजुमा ! उन सबको लेकर मैंने राम भक्ति और उर्दू शायरी पर एक दास्तानज़ादी की जो अब भी अक्सर सुनाई जाती है और लोग उसे बेहद पसंद करते हैं.

रामायाण और महाभारत दोनों ही बुनियादी तौर पर ज़बानी बयानियां हैं और सदियों तक इन्हें ज़बानी सुनाया जाता था. हमारे अहद में भी सत्यनारायण की कथा सुनाने वाले तो मौजूदहैं और रामलीला का भी हर साल बहुत जोश-ओ ख़रोश से इनेक़ाद किया जाता है मगर पूरी रामायण को अलग से ज़बानी सुनाने की रिवायत काफ़ी हद तक सर्द हो चुकी है और महाभारत तो ख़ैर अब शज-ओ-नादिर ही कोई सुनाता होगा. मेरी तरफ़ से तो यह हक़ीर सी कोशिश है की इन ज़बानी शहपारों को दुबारा सुनने और सुनाने का सिलसिला शुरू हो. पर जदीद थियेटर और ड्रामा ने इन लाज़वाल कहानियों को यक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया है अशद ज़रूरी है कि जो लोग थियेटर से ताल्लुक़ रखते हैं वो इन कहानियों को दोबारा मंज़रे-आम पर लाएं और ताकि इन्हें वो मक़ाम मिले जिनकी वो मुस्तहिक़ हैं.

2012 में उर्दू के ज़िंदा और जावेद अफ़साना निगार सआदत हसन मंटो की सद साला सालगिरह के जश्न का साल था. शायद ही कोई उर्दू पढ़ने वाला ऐसा हो जो मंटो के सहर मे गिरफ्तार ना हो और हमारे साथियों में बिलखुसूस दारैन शहीदी मंटों के बहुत बड़े परस्तार हैं. दारैन ने अपनी नौकरी के आगाज के ज़माने में रकम जमा कर के मंटो की पांच जिल्दी हिन्दी कुल्लियात दस्तावेज़ का पूरा सेट खरीदा था. दस्तावेज़ को जदीद उर्दू अफ़साने की एक नुमायां शख्सियतों में से एक बलराज मैनरा और उनके साथी शरद दत्त ने कई आश्रों की मेहनत और अर्क़रेज़ी के बाद तैयार किया था. मैनरा और दत्त ने मंटो की तमाम मतबूआ और ग़ैर मतबूआ तसनीफ़ को जमा किया, मंटो पर लिखे गए मज़ामीन को जमा किया. मैनरा खुद पाकिस्तान गए और मंटो के घर में मौजूद बक्स और कबाड़ में पड़ी उनकी बहुत सी गुमनाम और ग़ैर मारूफ़ और ग़ैर मतबूआ कहानियों और तहरीरों को खंगाला टटोला और बेशुमार लोगों से मुलाक़ात और मुज़ाकरे कर के इस काम को अंजाम दिया. उन्होंने दो हज़ार से ज़ायद सफ़हात अपनी नास्तालीक़ उर्दू में लिखे जिन्हें बाद में शरददत्त ने हिन्दी में मुंतक़िल किया और तब कहीं जा कर ये लाज़वाल खिराजे-अक़ीदत वजूद में आ सका.

खुद अपना खिराजे अक़ीदा पेश करने के लिए मैं ने दारैन के उसी देरीना सेट को दोबारा पढ़ना शुरू किया और पाकिस्तान के अपने सफ़र के दौरान ‘संगे मील’ लाहौर से शाया की हुई मंटो की कुल्लियात जो मंटोनामा और मंटोरामा के नाम से छपी थीं उन्हें खंगालना शुरू किया. अब जो मैंने बिल तरतीफ़ और तफ़सील से मंटो को पढ़ना शुरू किया तो पाया कि मंटो की तहरीरों के दो ख़ासियतें हैं. एक तो ये कि मंटो अफ़साने ऐसे लिखते थे की गोया किसी से गुफ्तगू कर रहे हों इसलिए उनकी तहरीरों में ज़बानीपन बहुत है. दोयम यह कि मंटो अपनी ज़िंदगी के वाक़ियात और आपस के छोटे – छोटे वाक़यों को बेतकल्लुफ वाक़िफकारों और सवानिहात को अपने अफ़साने में ले आते थे वो खुद और उनके रफ्क़ा हमेशा और मुतवातिर उनकी तहरीरों में ज़िंदा जावेद नज़र आते हैं. फिर मंटो ने अपनी अदबी ज़िन्दगी के आगाज ही मे शख्सी ख़ाके भी लिखने शुरू कर दिए थे. फिल्मी हस्तियों पर उनकी किताब “गंजे फरिश्ते” बहुत मशहूर हैं. उसके इलावा मंटो ने दूसरी बहुत सी शख्सियात पर ख़ाके लिखे बल्कि उनके बहुत से लाज़वाल अफ़साने जैसे बाबू गोपीनाथ और नया क़ानून एक तरह के ख़ाके ही हैं. इस तरह मंटो ने सहाफत, अफ़साना, हक़ीक़त और तारीख़ सब को एक दूसरे से यूं खल्त मल्त किया कि उनके यहाँ हक़ीक़त और तख़य्युल बिल्कुल ज़म हो गए हैं इस तरह मंटो हमारे मुल्क के पहले बड़े गैरअफसानी अदीब थे. वो उस वक़्त मुसलसल गैर अफसानी अदब लिख रहे थे जब उस जानिब कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी जा रही थी और ना वो हमारे दौर की तरह मारूफ़ और मक़बूल हुआ था और ना ही उसके लिखने वालों को कोई ऐतबार हासिल था.

बेशक मंटो खुद भी एक दास्तानी किरदार थे और उनकी तसनीफ़ को स्टेज पर पेश करने का सब से उम्दा तरीक़ा दास्तानगोई ही हो सकता है. उनके अफ़सानों पर ड्रामा करने की रिवायत बहुत पुरानी है. फिर मंटो ने खुद भी दो सौ से ज्यादा ड्रामे रेडियो के लिए लिखे, और बेशुमार फीचर्स भी रेडियो पर पेश किए. टोबाटेक सिंह, खोल दो, काली शलवार पर ड्रामे भी खेले जा चुके हैं और फिल्में भी बनी हैं. तो मंटो के अफ़सानों को पेश करना कोई नई बात ना होती. मगर मंटो के बारे में और उनकी अलमनाक ज़िंदगी के बारे में जितना ही पढ़ता गया उतना ही मुझे यक़ीन होता गया कि मंटो की ज़िंदगी दरअसल खुद उनके अफ़सानों की तरह तर्बिया और मज़ाहिया होने के साथ-साथ एक बड़ा अलमिया भी है. उन्होंने अपनी मुख़्तसर ज़िंदगी में इतने ज़ेरो-बम देखे और वह दर्द व कर्ब के इतने मंज़िल से गुज़रे कि वो ज़िंदगी खुद एक दास्तान बन गई.

अक्सर मंटो को महज़ तक्सीम-ऐ-हिंद का मुसन्निफ़ समझ लिया जाता है. बेशक तक्सीम-ऐ-हिंद उनकी ज़िंदगी का सब से बड़ा सानिहा थी और वो कभी भुला ना सके ! पाकिस्तान जाने के बाद से उनकी ज़िंदगी का सब से तारीक दौर शुरू होता है मैं तो समझता हूँ अगर वो पाकिस्तान ना जाते तो इतनी जल्दी राही-ए-मुल्के अदम न हुए होते.

इस हक़ीक़त से भी इनकार मुमकिन नहीं कि मंटो ने तक़सीम के अलमिये पर जो लिखा है वो तक़सीम के अदब की शाहकार तहरीरों में शुमार होता है. सियाह हाशिए के सर्दमहरि और उसका मुख़्तसर तक़सीम की हौलनाकियों को इस तरह उजागर करता है जितना बड़ी बड़ी और ज़ख़ीम तारीख़ की किताबें और रेपोर्टें नहीं कर सकतीं और ना कर पाई हैं. ये भी कहा जाए तो ग़लत ना होगा की मंटो शायद इसी लिए दुनिया में आए थे की तक़सीम के दर्द और तबाहकारी को हम तक पहुंचा सकें. वाक़ई तक़सीम के अलमिये और ख़ूंरेज़ियों को अपने लिए अगर किसी मर्द-ए हक़ की तलाश करनी होती तो मंटो से बेहतर किसी पर उसकी नज़रे इंतेख़ाब नहीं पड़ सकती थी.

अगर मंटो ने तक़सीम पे एक लफ्ज़ ना लिखा होता तो भी वो उर्दू के सब से बड़े अफ़साना निगार कहलाते. मंटो ने समाज के अदना तबक़े से, जिसे हाशिए पर पड़े लोगों के नाम से ताबीर किया जाता है, जो सरोकार रखा और जिस तरह उनकी ज़िंदगी को अपने क़लम से विक़ार और आलाज़र्फी बख़्शी वही उनक (जावेदां) होने के लिए काफ़ी है. मगर सवाल यही था कि अफ़सानों को दास्तान बना के पेश करना दास्तानगोई के साथ ज़्यादती है या दास्तान को एक नए इम्कान से रुशनास कराना ? दास्तान का मिज़ाज एक तरह से एंटी-नॉवेल का है. नॉवेल को दास्तान की ज़िद कहें तो गलत ना होगा और जदीद अफ़साना तो दास्तानगोई के लिए और भी कम मुनासिब है. इस लिए मैंने तय किया कि मंटो की हयात को ही हाज़िरीन के सामने पेश कर दिया जाए शायद इस तरह हमारे एक पूरे अहद की तारीख मंज़रे आम पर आ जाएगी. अमृतसर और पंजाब, मुंबई, लाहौर, अदब, सियासत, सहाफत, जंगे आज़ादी, हिंदू-मुस्लिम इत्तेहाद, समाजवाद, फिल्मी दुनिया की चकाचौंध, तक़सीम, तबक़ाती कशमकश, सरमयादारी, मुस्लिम शिद्दतपसंदी, कठमुल्लापन, शायद हमारी ज़िंदगी की कोई ताबीर ऐसी नहीं है जिसे हम मंटो के अफसानों से अखज ना कर सकें.

मुझे मंटो की एक अच्छी सवानेह हयात की तलाश थी मगर जैसे जैसे मैं पढ़ता गया मुझे एहसास हुआ की मंटो ने अपनी तहरीरों में खुद ही अपने बारे में बिलवास्ता और बिलावास्ता इतना लिख दिया है कि अलग से किसी सवानेह को पढ़ने की ज़रूरत नहीं. मसलन मुरली की धुन में उन्हों ने ना सिर्फ़ श्याम का ख़ाका खींचा है बल्कि अपने पाकिस्तान जाने की वजूहात और मुहर्रिकात पर भी थोड़ी बहुत रोशनी डाली है. फिर मैंने उनके हमसरों की चीज़ें पढ़ी मसलन इस्मत और कृष्ण चंद्र और अश्क के मंटो के ख़ाके जो बहुत मशहूर हैं. फिर शमीम हनफी ने हमारी बहुत मदद की और मंटो के देरीना दोस्त अबू सईद कुरैशी की किताब ‘मंटो’ की निशानदेही की और उसे हम तक पहुंचाने में बड़ी मदद की. उन्होंने हमें हुमायूँ अशरफ़ की मुरत्तब की हुई किताब भी फराहम की. डॉक्टर खालिद अशरफ की किताब ‘फ़साने मंटो के और फिर बयाँ अपना भी’ मेरे लिये कारामद साबित हुई. प्रोफेसर हनफी ने हमें मंटो के भानजे हामिद जलाल, जो उस ज़माने में पाकिस्तान रेडियो के लिए क्रिकेट कमेंटरी करने लगे थे, उनका लिखा हुआ मज़मून, ‘मंटो मामू का आखरी दिन’ के बारे में मुत्तला किया और फिर उसकी नक़ल भी हमारे लिये फराहम की.

तो इन सब वसायल की मदद से मंटो की ज़िंदगी को मैंने लिखना शुरूकिया तो मालूम हुआ की मंटो की ज़िंदगी के बिल्कुल दो वाज़ेह बाब हैं. तर्बिया बाब जो मुंबई में उनकी ज़िंदगी थी और खालिस आलमिया जो भी ज़िंदगी लाहौर में उन्होंने गुज़ारी. मगर सब लिख चुकने के बाद मैं अटक गया की इसका नाम क्या रखा जाए. दास्तान मंटो की - सीधा सादा था मगर उसमें उस शानदार और उथल-पुथल से भरी ज़िंदगी की अक्कासी नहीं होती थी, मंटोनामा और मंटोरामा वग़ैरा बहुत आमियाना लग रहे थे. बहुत सर मारने के बाद मंटो ने ही मुझे राह दिखाई. मुरली की धुन में जब मंटो फ़िलबादीह एक लफ्ज़ हिपतुल्लाह ईजाद कर के उसे बरमला इस्तेमाल करना शुरू कर देता है तो अशोक कुमार परेशान होकर श्याम से पूछता है कि ये हिपतुल्लाह किस ज़बान का लफ्ज़ है तब श्याम कहता है की ‘ये मंटो की नई मंटोइयत है’ बस मैं ने सोचा की मंटो की ज़िंदगी बयान करने के लिए इस से बेहतर उनवान नहीं मिल सकता, मंटो होना गोया कि एक इस्म (ism) से ज़ायद हो गया मंटो की तारीफ़ सिर्फ़ मंटोइयत से ही हो सकती है और वाक़ई मंटोइयत लफ्ज़ में ही वो जोश (एबुलियेन्स) है जो मंटो की शख्सियत के उबाल को ज़ाहिर कर सके.

तो दास्तान हुई और बहुत धूम धाम से हुई. कनाट पैलेस दिल्ली की एक छोटी सी जगह आटिक (The Attic) में इसकी बिस्मिल्लाह हुई, फिर हैबिटेट में बड़े ठाठ-बाठ से उसकी पेशकश कई बार हुई. उसी दौरान लाहौर में हमारी करमफ़र्मा मोनीज़ा हाशमी साहिबा की विसादत से मंटो साहिब की छोटी साहेबज़ादी नुसरत जलाल का पैग़ाम आया कि वो अपने वॉलिद साहिब की सद सला जश्न के लिए हमें लाहौर बुलाना चाहती हैं. तो फिर हम सब लाहौर गए और वहां इसे पेश किया, उसी सफ़र में मंटो साहिब के घर भी जाने का शर्फ भी हासिल हुआ, मियाँ नूरी साहेब के क़ब्रिस्तान में उनकी मज़ार पर फतिहा पढ़ा. फिर लाहौर प्रेस क्लब में जब इस दास्तान मंटोइयत को पेश किया तो पाकिस्तान के मारुफ अदीब,

ड्रामानिगार और शायर अमजद इस्लाम अमजद साहिब ने मुझे बड़ी दाद से नवाज़ा की ये तरतीब ऐसी ही है जैसे किसी फिल्म का स्क्रीनप्ले लिखा गया हो.

मुंबई में पृथ्वी थियेटर के मुज़ाहीरे के बाद माशूर फिल्म हिदायतकार विशाल भारद्वाज और उनकी अहलिया रेखा भारद्वाज ने भी मुझ से कहा कि ये तो एक बिल्कुल तैयार शुदा स्क्रीनप्ले है, फिल्म तो खैर नहीं बनी मगर मंटोइईयत वक़्तन-फवक़्तन रुनुमा होती रहती है और इस तरह हम मंटो को अपना खिराजे अक़ीदत पेश करते रहते हैं.

मेरा ज़ाति ख़याल है की चौबोली और सेडिशन दास्तान की तरह मंटोइयत की मानवीयत वक़्त के साथ बढ़ती चली जाएगी क्यूंकी बर्रे सग़ीर हिंद के सियासी और सामाजी हालात कुछ इस तरह से बदल रहे हैं की हम आगे बढ़ने के बजाए पीछे हटते जाते हैं और मंटो जमाने के हुदुद में क़ैद (डेटेड) होने के बजाए और आफ़ाक़ी बनता चला जा रहा है. जब मैं ये दास्तान तैयार कर रहा था तोप्रोफेसर मुजीब रिज़वी ने मुझ से पूछा था “ये बताओ कि क्या तुम्हारे दौर में मंटो जैसा कोई मुसन्निफ़पैदा हो सकता है और क्या उसे इस दौर में लिखने दिया जाता. मुझे अफ़सोस और शर्मिंदगी के साथ इक़बाल करना पड़ा कि हमारे अहद में मंटो को कब का शहीद किया जा चुका होता. अगर मुसलमान उसे शहीद ना करता तो हिंदू कर देता मगर उसकी शहादत यक़ीनी लिखी थी.”

दास्तानगोई के सफ़र के दौरान मुझे और हमारी पूरी टीम को अक्सरबहुत तारीफ-ओ साना से नवाज़ा गया, कई बार ये भी लगता था की हम बेइंतेहा ना-अहल हैं और जो सताइश हमें मिल रही है उसके हम मुस्तहिक़ नहीं. लोग इस तरह से इज्जत औए एहतराम करते थे जैसे हम वाक़ई बहुत कुहना-मश्क़ उस्ताद हों. बहुत से लोग ये कहते थे की आपकी दस्तानों को सुन के हमारे बच्चों को उर्दू सीखने का शौक़ पैदा हो रहा है ये मेरे लिए बड़ी ही बाइसे-इफ़्तेखार तारीफ़ थी. मगर लोग ये भी कहते रहते थे की तुम्हें बच्चों के लिए कुछ करना चाहिए. कईबार हमने सोचा बच्चों के लिए वर्कशॉप की जाए, उन्हें खुद तरबियत दी जाए. जब कभी बच्चों को सुनाने का मौक़ा मिला चाहे सरदार पटेल स्कूल दिल्ली में, या बच्चों के फेस्टिवल बूकारू में, या बड़े पब्लिक स्कूल्स जैसे ऋषि वैली स्कूल या मेरे अपने मादरे इल्मी दून स्कूल में तो मैंने हमेशा उसे लब्बैईक कहा और खूब मज़े ले के सुनाया और बच्चों को महज़ूज़ होते देखकर मेरा दिल खुश हुआ. मगर ये भी एहसास हुआ कि तिलिस्म-ए होशरबा की दास्तानें बच्चों को उतनी दिलकश नहीं लग रही है जितनी बड़ों को और फिर ज़बान तो उनके लिए और भी मुश्किल है. फिर भी दास्तान-ए आमिर हमज़ा यक जिलदी से मैंने अमीर और अमर के बचपन की दास्तान खूब सुनाई और बच्चों और बड़ों ने हमेश बहुत लुत्फ़ ले के सुनी. मगर ज़रूरत थी एक ऐसी दास्तान की जो ख़ासतौर से बच्चों को, मज़हब-ओ मिल्लत और ज़बान औरक् लास की तफरिक के बगैर समझ में आए. मुझे बच्चों के अदब से ज़्यादा शग़फ तो नहीं मगर इतना ज़रूर इल्म था की बच्चों के लिए जितने भी बड़े लिखने वाले हुए हैं वो सब बे-इंतेहा पहुँचे हुए और बाकमाल लोग थे. चाहे वो Charles Lulwidge Dodgson उर्फ़ Lewis Calrroll हों या Token हों या हमारे अहद में Rusking Bond हों या J K Rowling.

बहुत सोचने और पढ़ने के बाद मैंने तय किया कि Lewiss Calrroll की मशहूर ज़माना किताबों ‘एलिस इन वंडरलैंड’ (Alice In Wonderland) और ‘थ्रू द लुकिंग ग्लास’(Through The Looking Glass) को उर्दू में ढाला जाए. मैंने इन किताबों का इन्तेखाब इसलिए किया कि उनके किरदार और इनकी इस्तेलाहें हमारे मुल्क के अँग्रेज़ीदां बच्चों की मिज़ाज में सरायत कर चुकी हैं. फिर ये की एलिस का सफ़र एक तिलसिमाती सफ़र है, वो जिन तजुरबों और सानिहों से दो चार होती है उसी तरह के तजरबात से हमारे दास्तानवी किरदार भी रूबरू होते हैं. दूसरे ये कि इसके मुकालमे रसीले और बच्चों के दुलारपन से भरे हुए हैं कि इतना तो मुझे एहसास था की शरारत और बदतमीज़ी बच्चों को बहुत जल्द अपनी तरफ राग़िब कर लेती है और अगर ऐसी कोई कहानी हो जिस में ये पहलू और Adventure दोनों शामिल हो जाएँ तो फिर उसका कहना ही क्या. अमूमन बच्चे वो चीज़ें ज़्यादा सराहते हैं जोउ नसे बड़ों की तरह बड़ा बना के पेश आए. मुझे लगा की यह एक ऐसी कहानी है जो हर तबक़े के बच्चे का ध्यान खींच सकती है. इस काम को अंजाम देने में हमारी साथी दास्तानगो पूनम गिरधानी बहुत मुआविन साबित हुईं. दोनों किताबों को मिलकर और उनमें काट छाँट करके मैंने उन कहानियों को इंहिंदुस्तानी रंग देते हुए उर्दू माहौल में ढाला और इसका पहला मुज़ाहिरा उसी पुरानी जगह आटिक में 27 अगस्त 2013 को मुनक्किद किया गया और पहले ही लम्हे से उसने नाज़रीन का दिल जीत लिया. फिर इसकी बहुत सी नुमाइशें स्कूलों में, बच्चों के फेस्टिवल्स में, दिल्ली, जयपुर, हैदराबाद और पुणे वगैरह में आज भी ये दास्तान बहुत शौक़ से सुनी और सुनाई जाती है.

इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए 2015 में मैंने मशहूर फ्रांसीसी मुसन्निफ़ Antoine Saint Exupery की किताब ‘लिट्ल प्रिन्स’ को उर्दू में मुन्तकिल किया. यह एक सितारे पर रहने वाले बच्चे की कहानी है जो अपने फूल की हिफ़ाज़त करने के लिए कायनात के मुख़्तलीफ़ सय्यारों और फल्की सितारों का सफ़र करता है और आखिर में ज़मीन पर पहुँचता है. इस सफ़र में उसे तरह तरह के किरदार मिलते हैं - एक ताजीर है, एक राजा है, एक जोकर है, एक शराबी है और इनसे मुलाक़ात और मुज़ाकरा करते हुए उसे इंसानों की बनाई हुई दुनिया की मज़हका ख़ेज़ियों और उनकी अहमकानी सरगर्मियों का तजुर्बा होता है. वो इंसानों की दुनिया को ताज्जुब और सवालिया निगाहों से देखता है उसके अक़दार उसे अहमक़ाना लगते हैं और वो दर्दमंदी और मोहब्बत और फ़िक्र मंदी का सबक़ देते हुए एक नए तौर से दुनिया को देखने और समझने और बनाने की तलक़ीन करता दिखाई देता है. 1943 में शाया इस किताब की चौदह करोड़ जिल्दें बिक चुकी हैं और बाज़ लोग उसे इंजील के बाद सबसे ज़्यादा बिकने वाली किताब बताते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि ये बहुत मुख़्तसर सी किताब बहुत वकी और बुनियादी इंसानी मसायल से है और बहुत आमफ़हम ज़बान में एक ऐसी तमसील पेश करती है जो बच्चों और बड़ों दोनों को यकसां तौर पर मरऊब और मुतास्सीर कर सके. खुदा का फ़ज़ल है कि ये दोनों कोशिशें बहुत कामयाब रहीं और उनके मुज़ाहीरे होते रहते हैं.

दास्तान राजा विक्रम की एक बहुत ही खास पेशकश थी जो दास्तानगोई के दसवें साल पर तहरीर की गई थी. 2015 में दास्तानगोई के अहयाए-नौ को दस साल पूरे हो रहे थे. मैंने बहुत सोचा की किसी तरह इस मौक़े को यादगार बनाया जाए. उस सिलसिले में मैंने सोचा की या तो अलिफ लैला पे कुछ काम किया जाए जिस से ये अज़ीम शाहकार दोबारा ज़बानी सुनाया जाए क्यूंकी ये दरअसल ज़बानी बयानीया ही था. मगर उसपर काम करने के लिए 6-8 महीने की मोहलत दरकार थी जो उस वक़्त मुझे हासिल नहीं थी, और फिर ये भी था की चौबोली की बेहिसाब मक़बूलियत के पेश-ए नज़र हर तरफ से यही माँग थी की इसी तरह की कोई और चीज़ होनी चाहिए. दरीं असना मैं बेताल पचीसी को भी लोगों के सामने पेश कर चुका था. बेताल पचीसी की लचकदार ज़बान जो हिन्दी-उर्दू झगड़े से पहले लिखी गई थी मुझे बेइंतेहा पसंद आई थी. दीगर ये की हालाँकि वो पंदो नसीहत से भरी हुई थी मगर ये अखलाकी इरशादात इतनी दिलचस्प ज़बान में थे कि वो शस्त्रों के ज्ञान का काम कर सकते थे. मसलन ‘चार चीज़े आदमी माँ के पेट से लता है, ऩफा, नुक़सान, दुख और सुख.’

मैंने मज़ीद ग़ौर किया तो एहसास हुआ की दरअसल राजा विक्रम, या विक्रमादित्या हमारी कहानियों और तखय्यूल पर हर तरह से छाया हुआ है. विक्रम और बेताल की कहानियां जदीद अहद में भी टेलीविजन परदिखाई गईं और बेइंतेहा मक़बूल हुईं. बेताल पचीसी की तरह सिंघासन बत्तीसी, की उसमें भी राजा भोज के हवाले से विक्रम के कारनामों का ज़िक्र है, हिन्दी उर्दू अदब और मुज़ाहिराती कल्चर में बेइन्तेहा मुम्ताज़ रही है. उसके इलावा विक्रम संवत से भी विक्रम का नाम जुड़ा हुआ है. फिर ये जो योग-योगिनी, डाकिनी वग़ैरा का चक्कर है, बल्कि जो कायनात है, उसका दस्तानों में भी दखल है क्यूंकी उनमें साहिर जो बैर बनाते हैं और दूर-करीब की ताक़तों और इंसानों कोअपनी मुट्टी में लेते हैं उसके सिलसिले भी इन कहानियों से जा मिलते हैं.

मैंने विक्रम के किरदार पे ग़ौर करना शुरू किया तो मुझे ये लगा की हमारी देवमालाई कहानियों के दीगर किरदारों की तमाम आन-बान राजा विक्रम में मौजूद है. उसकी शुजाअत, जवांमर्दी, सखावत के क़िस्से कहानियाँ सब हमने अपने दिलों में सज़ा रखे हैं. बाज़ दफ़ा तो मुझे ये लगा की अमीर हमज़ा का मिसाली किरदार गढ़ने में कहीं ना कहीं हमारे दास्तानगोयों ने राजा विक्रम की बेमिसाल मक़बूलियत को अपना नमूना बनाया है. विक्रम की कहानियाँ हमें जदीद से कदीम की तरफ ले जाती हैं और हमारे मुल्क के तमाम जमानों को एक धागे में पिरोती है. तो मैंने सोचा की विक्रम को मरकज़ी किरदार बना के इश्क़-ओ मुहब्बत की ऐसी रुदाद बनाई जाए जिसमें चौबोली का रंग शामिल हो. मैंने दोबारा रामानुजन का सहारा लिया और उनकी अवामी कहानियों की दुनिया को राजेय हुआ. उस दुनिया से मुझे फिर कुछ ख़ज़ाने हाथ लगे, उनको मिला कर चौबोली को इस दास्तान में क़िस्सागो बना के मैं एक पैराया तैयार किया जिसका मरकज़ी सिरा मीर की मसनवी शोला-ए इश्क़ को बनाया. इन सब को मिला कर एक दास्तान बनाई गई जिसमें बहुत सी चीज़ें ऐसी थीं जो सदियों के बाद स्टेज से सुनाई गईं थीं. मसलन मीर की मसनवी मुझे नहीं लगता कि पिछले डेढ़ दो सौ बरस से किसी नेस् टेज से इस मसनवी को सुनाई है, और ना ही पारसी थियेटर के दौर के बाद से राजाविक्रम की दस्तानों को इस तरह स्टेज पर बयान किया गया है.

तो इस तरह राजा विक्रम, चौबोली, बेताल पचीसी, रामानुजन और मीर तकी मीर को मिलाजुला कर वो खिचड़ी तैयार हुई जिसको राजा विक्रम की दास्तान का नाम दिया गया इसकी तैयारी का शोहरा सुन के मशहूर ज़माना टेलीविजन एंकर रवीश कुमार जोश में आ गए और उन्होंने हमारे साथ एक घंटे का एक पूरा प्रोग्राम रेकॉर्ड किया जिसे NDTV INDIA पे नश्र किया गया और लाखों लोगों तक पहुँचा. उसी सिलसिले में इंडियन एक्सप्रेस ने मुझ से इस दास्तान पे एक फीचर लिखने को कहा जो उसी दिन शाया हुआ. 4 और 5 एप्रिल 2015 को इंडिया हैबिटेट सेंटर के स्टाइन ऑडिटोरियम में येदास्तान पहली बार सुनाई गई और बेइंतेहा कामयाब हुई. इस तरह विक्रम का काम और मीर तक़ि मीर का कलाम सैकड़ों लोगों तक पहुँचा और हमारी नामवरी का बाइस साबित हुआ.

तिलिस्म-ए-होशरुबा की एक दास्तान हुस्सम जादू भी इस मजमुए में शामिल है. इसको पढ़ कर आप देख सकेंगे कि हमारे पुराने दास्तानगों किस पाए के क़िस्सागो थे और प्लॉट को किस चाबुकदस्ती से बुनते थे. वह अफरासियाब का एक उस्ताद है और अमीर हमजा के अय्यार हैं कि उसे आसमान में मुअल्लक़ कर देते हैं और फिर किस तरह से एक नफ्सियाती जाल बुनते हैं जिसमें अफरासियाब जैसा बड़ा साहिर चकरा के रह जाता है. दरअसल होशरुबा में सिर्फ़ प्लॉट की नैरंगियाँ और पेचीदगियाँ नहीं होती, यहाँ किरदारों की नफ्सीयात को भी सामने लाया जाता है. अय्यारी क़ाबिल-ए क़बूल हो या ना हो लेकिन हरीफ़ उसके झांसे में आ जाता है फिर इंसानी कमज़ोरी बहरहाल इंसान को बेबस कर देती है. बंदा बशर है, कितना बड़ा साहिर क्यूँ ना हो, वो खुद अपनी लग़ज़िशे-पा से नहीं बच सकता. अय्यारी चकमाबाज़ी की आलातरीन शक्ल हैं , ये हमें यहाँ मालूम होता है.

इस किताब में शामिल आखरी दास्तान कर्ण की दास्तान है जो मैंने बराहेरास्त संस्कृत महाभारत से रुजुअ कर के तैयार की है. ज़ाहिर है महाभारत एक ऐसी गाथा है जिसे सुनाने के लिए दास्तानगोई का फन और उसके बलंद मयार पर पूरी तरह खड़ा उतरना पड़ता है. उसकी उठान, उसके मिसाली किरदार, उसकी गहराई और उसअत और पेचीदगी और रंगारांगी और फैलाव ये सब दास्तानगोई के मिज़ाज से हम-आहंग हैं. उसको तैयार करने से पहले मैंने इंतिज़ार हुसैन के वाक्ये और नुक्ता रसमजामीन की किताब पढ़ी थी. जिसमें गंगा जमनी तहज़ीब और उसके कारनामों पर जामे नज़र डाली गयी है. फिर मुझे ख़लिफ़ा अब्दुल हकीम के पाकिस्तान में तैयार किए हुए गीता के तर्जुमे तक पहुँचने में मदद मिली. ये वह ज़माना था जब मैंने बहुत मुद्दत बाद दोबारा क़ुरआन का मुताला शुरू किया था. मुझे महसूस हुआ की क़ुरआन पाक में जा बजा जो हश्र के मैदान का बयान और उसकी मंज़रकशी की गयी है वो कुछ इसी क़िस्म की है जो कुरुक्षेत्र की रणभूमि में पैदा हुई होगी. जब भाई भाई की परछाई से दुर भागता था और कोई किसी का मददगार ना साबित हो सका था.

बचपनमें मैंने रामधारी सिंह दिनकर की शोहरा आफ़ाक़ तवील नज़्म “रश्मिरथी” पढ़ी थी और उसी वक़्त से करण का किरदार मेरे दिमाग पर नक़्श था. उसकी दरदमांदगी, उसकी बेबसी, उसकी शुजाअत, उसका एंटी-हीरो (Anti Hero) किरदार, उसकी जवाँमर्दी - ये सब ज़ेहन में हमेशा रोशन रहे थे. फिर नौजवानी में श्याम बेनेगल की फिल्म ‘कलयुग’ भी मुझे बहुत पसंद आई थी. कॉलेज में धर्मवीर भारती का नाटक ‘अँधा युग’ ने मुझे मबहूत किया था. एक ज़माने में जब मैं अमरीका के एक्टिंग इंस्टिट्यूट में आडिशन देने गया था तो मैंने अंधा युग से एक इक्तेबास वहाँ पेश भी किया था. फिर अपने ग्रेजुएशन में मैंने अकबर बादशाह के महाभारत के तर्जुमे रज़्मनामा” और मुल्ला बदायुनी की नागवार और मूतनफर तबा का उस पे इजहारे ख्याल भी पढ़ा था. तो इन तमाम चीज़ों क इम्तेज़ाज से मैंने ये दास्तान तैयार की और उसका सर लगाने के लिये इन्तेज़ार साहब के एक इंटरव्यू का सहारा लिया कि जब तक्सीम के बहुत सालों बाद वह हिंदुस्तान आये और उनसे सवाल किया गया कि “इन्तेज़ार साहब दोनों तरफ़ कितने ज़ु अक्ल और दानिशमंद लोगों के होने के बावजूद इस तरह से मुल्क का बटवारा क्यूँ हुआ कि इतनी खूँरेजी हुई” तो इन्तेज़ार साहब ने जवाब दिया कि “यहाँ सवाल महाभारत के मुसन्निफ़ महाऋषि व्यास के शागिर्द विश्या विपिन से जिन मियाजाया ने किया था कि दोनों तरफ़ इतने अक्लमंद और बाशऊर लोग थे फिर ये जंग क्यूँ बरपा हुई” और दोनों ही सवालों का मुख्तसर जवाब ये है कि इंसान जब अपने जामे से बाहर निकलता है और खुद को बहुत बाकमाल समझने लगता है और जब धर्म के हुदुद से पार निकलता है तब ऐसा ही क़त्ल-ओ-गारत मचाता है और इसी तरह श्री कृष्ण को जन्म लेना पड़ता है ये जवाब मेरे लिये बहुत मानाखेज था और इसी की मशाले-राह बना के मैंने ये दास्तान तदवीन की. उम्मीद है आपको पसंद आयेगी अब श्री कृष्ण कब जन्म लेंगे ये हमारे ज़माने का मसला है.

इन दास्तानों को तरतीब देते वक़्त मैंने ये बात मलहूज़ रखी थी कि इनमें दास्तानी रंग क़ायम रहे. ग़ौर करें मैंने ये नहीं कहा कि इन दास्तानों को लिखते वक़्त, मैंने कहा इन दास्तानों को तरतीब देते वक़्त. दास्तान अव्वलन तो लिखी नहीं सुनाई जाती हैं. मगर मैंने जो काविश की है उसमें दास्तानों को तदवीन किया गया है, अँग्रेज़ी मेंकहें तो कंपाइल (Compile)किया गया है. जैसा कि पहले भी जगह जगह इशारा हो चुका है. इन तमाम दास्तानों को तदवीन करते वक़्त मैंने मुख़्तलिफ़ ज़राए, अस्नाफ़ और माखज़ों से इस्तिफ़ादा किया. बाज़ दफ़ा माखज़ जदीद होते थे और बाज़ दफ़ा क़ुरून-ए वुस्ता से और बाज़ दफ़ा क़दीम अहद की चीज़ें इसमें शामिल हो जाती हैं. मसलन चौबोली में जो शिव स्तुति मैंने इस्तेमाल की है वो 18वीं सदी की है मगर उसका ज़िक्र मैंने मशहूर तारीखदान फ्रॅन्सीयेसका ऑर्सीनी (Francesca Orsini) की मुरत्तबकरदा एक किताब से है जिसका उनवान है “बिफोर दि डिवाइड:हिन्दी एंड उर्दू लिटरेरी कल्चर” (Before The Divide: Hindi And Urdu Literary Culture)जिसमें एक मौसिकी के स्कॉलर ने इस भजन का बयान किया था. मैंने पढ़ा और वहीं से मदद ली. इस तरह तारीख और अदब में दिलचस्पी के बाइस बहुत सारी ऐसी चीज़ें पर मुझे दस्तरस हासिल हो जाती है जो बज़ाहिर क़िस्से कहानियों के मैदान से जुदा हैं. मसलन चौबोली पे काम करने के दौरान मैं हबीब तनवीर की खुदनविश का अँग्रेज़ी तर्जुमा कर रहा था तो बहुत सी ऐसी चीज़ें मिली जो दोनों में मुश्तरक थीं और इस तरह मुझे एक से दूसरे का जआज़ करने का मौक़ा मिला. फिर मेरी 1857 के मारके पर जो किताब है, “बिसीज्ड: वॉसिएस फ्रॉम देल्ही,1857” (1857 Besieged: Voices From Delhi) उसमें खुद एक दास्तानी रंग है जिसके सबब से मैं बहुत दिनों तक सोचता रहा कि इंतेज़ार हुसैन के लाज़वाल अफ़साने “जल गरजे” और अपनी किताब को मिला कर 1857 पे एक दास्तान मुरत्तब की जाए जिसके लिये बहुत से शायक़ीन मुश्ताक थे मगर वक़्त ने उसकी मोहलत ना दी. मगर जब इंतेज़ार हुसैन पर मैंने किताब लिखी ‘आ रेक्वीयेम फॉर पाकिस्तान: दी वर्ल्ड ऑफ इंतेज़ार हुसैन’ (A Requiem For Pakistan: The World Of Intezar Husain) तो उसमें दास्तान, क़िस्सा कहानियां, जदीद अफ़साना, तारीख, सियासत, अदबी और सक़ाफती सियासत और दास्तानगोई, ये सभी एक दूसरे में इस तरह से ज़म हो गये कि पढ़ने वालों के लिए इंतेज़ार हुसैन,शम्सूर्रहमान फ़ारूक़ी, दास्तानगोई और राक़िम उल हुरुफ़ की ज़ात को अलग अलग करके देखना मुश्किल हो गया और ये मेरे लिए ऐन इतमीनान और फख्र की बात थी.

अब इस बात पर थोड़ी गुफ्तगू कर लेते हैं की दास्तानी रंग क्या होता है और किस तरह वह हमारे अहद में ज़बानिया बयान या नरेटिव (Narrative)में बरता जाए और क्यूँ दास्तानगोई कहलाने के लिए किसी पेशकश मेंउ स रंग की आमेज़िश नागुज़ीर है. दास्तानगोई के उरूज के ज़माने में दास्तानगो फ़िलबादीह दास्तानें गढ़ने पर पूरी क़ुदरत रखते थे. लेकिन ये भी है कि उस ज़माने में भी लोग लिखी हुई दस्तानों को याद कर के उन्हें सुनाया करते थे मगर बुनियादी तौर पे ये फन फ़िलबदीह गढ़ने का फन है यानी इंप्रुवाइज़ेशन (Improvisation) दास्तानी मुज़ाहिरे का ज़ुज़वे ला-यफ़क है। अपनी इस महारत और अपने बाकमाल हाफज़े और याद्दाश्त की मदद से दास्तानगो जहाँ चाहते थे दास्तान का धारा मोड़ देते थे. वो जिस तरफ़ चाहते दास्तान को उस तरफ़ ले जाते. अगर महफ़िल का मिज़ाज इश्क़बाज़ी और श्रिंगार रस की तरफ मायल है तो घंटों घंटों उस क़बील की चीज़ों पर ठहर जाते और अगर रजज़ का बयान मक़सूद है तो उस रस में लोगों को शराबोर कर देते या फिर अय्यारी और मज़ाहिया मामला पेश करना है तो उसी पर ठहर जाते थे. ज़ाहिर है उसके लिए गज़ब की याद्दाश्त और हाफिज़े के साथ साथ नज़्म-ओ नस्र पर पूरा उबूर होना लाज़मी था, यानी ज़बान के हर पहलू पर महारत के बग़ैर ये कारनामा अंजाम देना नामुमकिन था. मीर बाक़र अली, जो हिन्दुस्तान के आखरी बड़े दास्तानगो थे, उनके बार में कहा जाता था कि तिलिस्म-ए होशरबा के दफ़्तर के दफ़्तर उनके नोक-ए ज़बान थे. वो घंटों दास्तान सुनाते थे और क्या मजाल की कहीं अटक जाएं या ज़बान में कोई लग़ज़िश आ जाए. मोहम्मद हसन जाह और अहमद हुसैन क़मर की सैकड़ों गज़लें, नज़में और मसनवियां दास्तानों में मौजूद हैं. फ़ारूक़ी साहिब ने ये भी लिखा है कि अक्सर दास्तानगोयों के पास पत्ते होते थे यानी दस्तानों को इशारे जिन्हें वह बयान करते वक़्त फैलते थे और उनमें रंगआमेज़ी करते जाते थे.

ज़ाहिर है हमारे पास उस सलाहियत का अश्रे अशीर है ना ही हमारे सुनने वाले वो अहलियत रखते हैं जो उस ज़माने के सामईन के पास थी. हम दास्तानें लिखते हैं, या तरतीब देते हैं, फिर उन्हें यादकर के सुनाते हैं. हिन्दुस्तान के मशहूर थियेटर नक्काद आनंद लाल ने कोलकाता में हमारा शो देखने के बाद अपने तब्सिरे में इस बात की निशानदेही की है कि हक़ीक़त में दास्तानगोई की अहया-ए-नौ उस वक़्त होगी जब हमारे अहद के दास्तानगो इमप्रवाइज़(Improvise) कर के दास्तान सुना सकेंगे. यक़ीनन उस मुक़ाम तक पहुँचने में हमें बरसों की मश्क़ दरकार है. हम जो चीज़ें सुनाते हैं उन्हें याद करके पेश करते हैं. उसमें कोई ऐसी क़बाहत नहीं है मगर सवाल ये है की हम जो चीज़ दास्तानगोई के नाम पे सुना रहे हैं क्या वो दास्तान हैं या महज़ क़िस्से-कहानियाँ हैं.

क़ोदमा ने दास्तानगोई और क़िस्सगोई को अलग अलग फन माना है. क़िस्से सुनाने की रिवायत हमारे यहाँ बहुत मक़बूल रही है और हिन्दुस्तान की हर ज़बान में इसका कोई ना कोई नमूना मौजूद है. ज़्यादातर रिवायतों में मौसीक़ी और गायकी इस फन का ख़ासा है. यानी लोग क़िस्से सुनाते वक़्त मौसीक़ी और मज़ामीर का इस्तेमाल कसरत से करते हैं. दास्तानगोई इन फुनून से इसलिए मुमताज़ थी क्यूंकी इसमें मौसीक़ी काइस्तेमाल ना के बराबर होता था और दास्तानगो महज़ तहतुल-लफ़्ज़ में अपनी आवाज़ के जादू से वो समां बाँधते थे की लोग उसमें बँधे रह जायें. तो ज़ाहिर है की दास्तानगोई में मौसीक़ी और साज़ की कोई जगह नहीं. मज़ीद ये की हर छोटी बड़ी कहानी सुनाना दास्तनगोई नहीं हो सकता. आजकल लोग उर्दू के अफ़सानानीगरों की कहानियाँ याद कर के पेश करने लगे हैं और उसे दास्तानगोई का नाम दे देते हैं. जदीद अफ़साने और नॉवेलों की बनावट और उनकी शेरियात दास्तान की फ़िज़ा से बिल्कुल मुतज़ाद है और उन कहानियों को लिखकर पेश करने के भरोसे पर आप दास्तानगोई के फ़राइज़ और उसके लवाज़ीमात से सुबुक्दोष नहीं हो सकते.

दास्तानगोई के लिए जो बयानीए मैंने तैयार किये हैं उनमें ये ध्यान रखा है की एक बयानिया होना चाहिए, एक ऐसा बयानिया जो नॉवेल और अफ़सानों से मुख्तलिफ हो. उस बयानीए में एक ख़ास जाह-वो-जलाल (Grandeur) ग्रॅनडूर होना ज़रूरी है, एक बुलंद-आहंगी, जिस से उस का लहज़ा आम बयान से मुख़्तलीफ़ हो और उस बयानीए में शेरो शायरी का इलतेज़ाम ज़रूरी है. आम बयानिया के नरेटिव (Narrative) और दास्तानगोई के नरेटिव (Narrative) में फ़र्क़ होता है. सेडिशन हो या चौबोली उसका बयान आम ज़िंदगी के वाक़ेआत से बालातर है. उसका सुर और उसका सोज़ दोनों एक बुलंद-ओ बांग तख़ातुब का हामिल होना चाहियें. और फिर उसमें जो फ़िज़ा है वो ऐसी होनी चाहिए जो हमारे क़दीम क़िस्से-कहानियों और दस्तानों का ख़ासा है. आम ज़िंदगी से हट के वाक़ेआत का बयान हो, उनका अपना एक तसलसूल हो, एक अपनी दाखीली मंतिक़ जो हमारे जदीद फिक्शन की माक़ूलियत (Rationality) से परे हों.

ये जो मैं दास्तानी रंग की बात कर रहा हूँ ये मेरे खाम ज़हन की इख़तिरा नहीं है. शम्सूर्रहमान फ़ारूक़ी ने चौबोली देखने के बाद इंतिज़ार हुसैन से यही कहा था की देखिए साहिब क्या दास्तान का रंग पैदा किया है इस कहानी में. तो दास्तान का रंग लाने के लिए ज़ाहिर है दस्तानों से वाक़फ़ियत होना ज़रूरी है और उनके जमालियात में थोड़ा बहुत दरक भी नाग़ज़ीर है. ज़ाहिर है अगर आपको उर्दू नहीं आती तो आप जो भी बयानिया चाहे फैकुल फितरत तखलीक़ कर लें उसे दास्तान नहीं कह सकते. दास्तानी रंग के लाने के लिए एक मूफ़िक़ुल फ़ितरत माहौल का पैदा करना ज़रूरी है. और वो माहौल तब तक पैदा नहीं हो सकता जब तक आपका मौज़ू और आपका बयान इतना तवाना हो की वो एक भारी बयानीए के मुताहांमिल मतहम्मिल हो सके.

इसीलिए मैं दास्तानों को तरतीब देने की बात करता हूँ. दास्तानगोई के लिए कोई चीज़ तहरीर करने के लिए उसमें तरह तरह के माखीज़ों से रूजू करना पड़ता है. क्लासीकी शायरी, क्लासीकी मज़मून, तारीख, अदबइन सब का निचोड़ बना के, मुनासिब चीजों की पट लगा के ही हम लोग दास्तानगोई का बयानिया कायम कर सकते हैं. उनकी मदद से ही मैं उन बयानियों को गढ़ सका हूँ जिन्हें इस कदर मक़बूलियत हासिल हुई है की ज़्यादातर दास्तानें जो मैंने बनाई हैं उन के सौ से उपर मुज़ाहीरे हो चुके हैं और उन्हें पसंदीदगी से देखा गया है. जब मैंने फ़ैज़ साहिब पे एक मुज़किराह तैयार किया तो उसका नाम दास्तान-ए फ़ैज़ नही रखा और ना उसे दास्तानगोई के अंदाज़ में पेश किया क्यूंकी मुझे ये एहसास था की इसमें ऐसा कोई बयानिया नही जो इस तरह सुनाया जा सके और ज़बानी सुनाने का बोझ बर्दाश्त कर सके. एहतेरामन और रासमन तो आप टोपी अंगरखा पहन के कुछ भी सुनायें लोग उसे गवारा कर लेंगे मगर दास्तानगोई के लिए एक बहाव चाहिए, एक उठान, एक उड़ान, बक़ौल गॅलिब

“कुछ और चाहिए उसअत मेरे बयान के लिए”

दास्तान एक ज़बानी फन है मगर यह एक अंदाज़े बयान होने के साथ साथ एक बयानिया का भी नाम है. सिर्फ़ दास्तानगोई के अंदाज़ में बैठने से (और वह जदीद अंदाज़ भी हमारी इखतिरा है) हर चीज़ दास्तानगोई नहीं हो जाती. दास्तान कहलाने के लिये आप बयान कर रहे हैं उस बयानिया का दास्तानी होना ज़रुरी है. दास्तान की तारीफ़ में जगह जगह ऊपर बयान कर चुका हूँ. इसकी अव्वल शर्त यह है कि जो भी हमने लिखा है ज़बानी सुनाने के लिये लिखा है पढ़ने के लिये नहीं . ज़बानी सुनाने की मंतिक और हरकियात कुछ और होती है. दूसरी बात यह कि दास्तान में “दुनिया के ऊपर” यानी आम ज़िंदगी के बाहर का ज़ायका होना चाहिये. बात चाहे हमारे ही ज़माने की हो लेकिन सुनने में ऐसी लगे कि किसी किताब, किसी अखबार, किसी हकीकी वाकये से नहीं निकली है. अगर आप अंगरख्खा और टोपी पहन के दो जान बैठ गये और आपने कुछ भी आमियाना से चीज़े पढ़ दी तो वह सही मानों में दास्तानगोई नहीं कही जा सकती क्योंकि सिर्फ़ Wrapper या खोल चढ़ाने से अंदर के माल की नौइयत नहीं बदल जाती. अगर वह बयानिया दास्तानी नहीं है तो आप कितनी भी देर और कितनी ही बार स्टेज पर बिराज लें उसे दास्तानगोई कहना नाइंसाफी होगी. यह इस तरह है कि आप किसी गवय्ये के तर्ज पर शुरू हो गये और पीछे कोई तानपुरा बजा रहा है तो इसका मतलब नहीं कि महज उसकी वजह से आपकी पेशकश क्लासिकी मौसिकी हो गयी. और आखरी बात यह कि दास्तानगोई के लिये बहुत सारा इल्म भी दरकार है.

मौसिकी का जिक्र आया तो यहाँ इस बात का जिक्र भी होना चाहिये कि मौसिकी के अंदाज़ व आदाब बहुत हद तक दास्तानगोई पर भी मुन्तबिल हो सकती हैं. मौसिकी उर्दू शायरी और दास्तानगोई, इन तीनों का मिज़ाज “नाट्यशास्त्र” और हमारे तमाम उलूम व फुनून के धारों से बरामद होता है. इसलिये हमें बाज़ बक्त जदीद हिंदी शायरी इतनी गैर मानुस लगती है क्योंकि वो दरअसल उन धारों से कट के ईजाद हुयी है. अभी हाल ही में जब “दास्तान -ए-कर्ण - अज़ - महाभारत” पेश की तो हिंदुस्तान के मशहूर व मारुफ मोअररिख शहीद अमिन ने कहा कि तुमने इसमें जायसी को क्या खूब चस्पाँ किया है. यह जो चस्पाँ करने वाली बात है इसे मौसिकी में अक्सर टुकड़े लगाना कहा जाता है और ज़बानी मुजाहिरे में यह बहुत देखा जाता है कि आपने कहीं की चीज कहीं पेवस्त कर दी. मौसिकी और शायरी में उसे यह भी कहते हैं कि यह चीज़ बैठा दी उया इसे यूँ जमा दिया. अक्सर देखा गया है कि कोई क्लासिकी मुगन्नी आपको दिखता है कि देखिये सहा मैंने क्या नई बात पैदा की है या फलाँ चीज़ कि किस तरह टुकड़ा लगा के नए रंग में पेश किया है, या यह कि फलाँ रंग में फलाँ रंग का रंग डाल दिया है. इसीलिए कभी कभी हम लोग इस्तिलाहन दास्तान तदलीन करने को दास्तान बनाना भी कहते हैं. जैसे धुन बनाना या लय बनाना. इसमें शायर और फ़नकार बढ़ चढ़ के अपनी खुद की बुलंद आहंगी का दावा करते हैं और खुद को बहुत आला मरतबा बताते हैं. फ़ारूक़ी साहब की तहरीरों को पढ़ के मालूम हुआ कि इसे ताअल्ली कहा जाता है. अब देखिये मीर अनीस एक बंद में अपनी तअल्ली का रंग किस तरह दखते हैं-

एक क़तरे को जो दूँ बस्त तो कुलज़ुम कर दूँ
बहरे मव्वाज ए फसाहत का तलातुम कर दूँ
माह को महर करूँ, ज़र्रे को अंजुम कर दूँ
गुंग को माहिरे अंदाज़े तकल्लुम कर दूँ
दर्दे सर होता है बेरंग ना फरियाद करें
बुलबुलें मुझसे गुलिस्ताँ का सबक याद करें

ये शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी की काविशों और उनकी नेक नियती और उर्दू अदब की मोहब्बत से मम्लू जज़्बे और मेहनत का नतीजा है की आज दास्तानगोई हिन्दुस्तान में इतनी मक़बूल हो गई है की हर आदमी अपनी पेशकश के साथ दास्तानगोई का लफ्ज़ इस्तेमाल करने पर कोशां हो गया है. कहीं कोई म्यूज़िकल दास्तानगोई कर रहा है, तो कहीं दास्तानगोई का इस्तेमाल सियाहत के लिए किया जा रहा है, कोई ख़ुसरो की गज़लें पेश करने के साथ उसमें चार जुमले नस्र के बोल के उसे दास्तानगोई के नाम से पुकार रहा है. ये शुक्र का मक़ाम है की बहुत से लोग दास्तानगोई के नाम का इस्तेमाल कर रहे हैं और इतने लोग उसके नाम पर प्रोग्रामों में खींचे चले जातेहैं. नाम तो दास्तानगोई का ही इस्तेमाल हो रहा है और ये हमारे लिए जिन्होने इस अहद में इसे फैलने का बीड़ा उठाया तक़वियत और इतमीनान का मक़ाम है. मगर उसके साथ साथ ताश्वीश ये भी है कि हर तरह की सतही और आमियाना चीज़ दास्तानगोई के नाम से लोगों पर लादी जा रही है. जो लोग इन पेशकशों के ज़रिये दास्तानगोई से पहली बार रूबरू होते हैं उन्हें ये अंदाज़ा ही नहीं हो पाता कि दास्तानगोई किस सहरकारी का नाम है.

एक तरह से देखेंगे दास्तानगोई के ये सिफली नमूने उन्हीं मुहर्रिकत का नतीजा हैं जिनकी वजह से आज उर्दू की हर मुज़ाहिराती रिवायत इंहितात के दौर से गुज़र रही है. मुशाएरा हो या ग़ज़ल-ख़्वानी या गज़ल गायकी हर चीज़ गोया एक तरह से बिरयानी की तरह हो गयी. चावल हों और गोश्त ना हो तो भी चिकन हो और वो भी ना हो तो पनीर से काम चला के खाने वाला ये सोच के खुश हो जाता है की वो बिरयानी खा रहा है. उसी तरह हर तरह की चीज़ को दास्तानगोई के नाम पे पेश कर के और सुन के सुनाने वाले और सुननेवाले इतमीनान महसूस करते हैं कि चलो कोई टोपी पहने हुये था और उर्दू की तरह की कोई चीज़ उसे सुनाई पड़ी तो उसे लगा की ये कान पड़ी आवाज़ दास्तानगोई है: 


टुक देख लिया, दिल शाद किया, खुश काम हुए और चल निकले

वैसे तो उर्दू बेचारी हिन्दुस्तान में ग़रीब ज़बान, जो चाहे उसकेसाथ जैसा सुलूक या जैसे ज्यादती कर ले. ज़्यादती कर ले. दारैन इस पे एक मज़े की पॅरोडी सुनाते हैं. एक महफ़िल में एक साहिब बोले:

मैंने पूछा यारों से, क्या हम भी गादें कोई गजल
यार बोले, नांगिया जी देख लो...

फ़ारूक़ी साहिब का इसरार था की हम जब दास्तान सुनायें तो फख्र और शान से सुनायें और यूँ सुनायें की जिसे ज़बान समझ में नहीं आ रही वो गोया खुद ही कोरा है, उसके लिए किसी रियायत का इल्तिज़ाम नहीं रखा जाए और ना ही उसक लिए ज़बान सहल की जाए या अल्फ़ाज़ के मतालिब बताए जाएँ. वैसे भी तरसील और फ़हम का मामला बहुत गुंजलक है, कौन सी चीज़ क्यूँ और कैसे असर डालती है उसका मामला सिर्फ़ अल्फ़ाज़ के मआनी या सेमॅंटिक्स (Semantics) से नही है.

बात जो दिल से निकलती है असर रखती है

ज़रूरी है की इस अहद में जब बाज़ौक लोगों का फुक़दान है फन के मेयार को क़ायम रखा जाए और उसको उसी बुलंदी पे रखा जाए जिसका वो मुस्तहिक़ है. ये सही है की हमारे अहद में दास्तानगोई के महफ़िल की रुसुमियात (Comventions) कामयाब हैं मगर बिल्कुल नोपैद नहीं है. मुझे इस मैदानमें बारह पंद्रह बरस होने को आए और मैंने जो काम किया है पीर-ए मुगा फ़ारूक़ी साहिब की निगराबानी में किया है. अब तक हमारा जो काम है जो पिछली किताब में मंज़र ए आम पर आ चूका है और बाक़ी मेरी किताब में आ रहा है । उसकी रोशनी में ये कहना सही नही है कि दास्तानगोई का मेयार नहीं है और इसलिए दास्तानगोई के नाम पे सब कुछ चलता है.दास्तानगोई के नाम पर वोही बयानिया चल सकता है जो लोगों के दिल-ओ दिमाग मेंउतर सके और उन्हें पूरी तरह अपनी गिरफ़्त में ले सके. वरना हल्काफूलका मज़मून या क़िस्सा सुना के आप इस फन की तौहीन कर रहे हैं और अपनी और अपने सामाईन की कोई खास तौक़ीर भी नहीं कर रहे.

जिस दौर से हम गुज़र रहे हैं वो एक ऐसा पुर-अशोब दौर है जिसमें पुराने सारे मीज़ान, सारे तौर तरीक़े और अतवार टूट रहे हैं. वो इक़दार जिनके तहत हम आपस में गुफ्तगू करते थे, एक दूसरे से मुहब्बत और मुखालीफत करते थे वो सोशियल मीडीया के शोर में डूबते चले जा रहे हैं और हर तरफ मुनाफ़रत का दौर-ए दौरा है. इस तरह हम ज़बान होते हुये भी हम एक दूसरे की बात ना सुनना चाहते हैं ना समझना. इस इंतेहा पसंदी और शिद्दत पसंदी को महज़ किसी सियासी गिरोह बंदी से वाबस्ता नही किया जा सकता बल्कि दिन दूनीरात फैलने वाली किसी छुआछूत की बीमारी की तरह ये उयुब हमारे अंदर सरायत कर रहे हैं. तो एक ऐसे पूर अशोब दौर में जहाँ हर मुख्तलिफ़ हवा को एंटी नेशनल (Anti national) गद्दार या फॅसिस्ट (Facist) कह दिया जाता है, एक फनकार से अलग तरह के तक़ाज़े करता है. अब महज़ झंडा उठाने या नारे लगाने से काम नही चल पाएगा क्योंकि आज सोशियल मीडीया और टेलिविज़न पे हर आदमी सिर्फ़ नारे लगा रहा है.

इसके साथ साथ ये भी है कि हर आदमी अब बजाते खुद अदीब फ़नकार सहाफी बन गया है और हर फन की महारत हासिल कर चुका है. Facebook, Twitter, Instagramके इस दौर में हर शख्श फोटोग्राफर है, नक्काद है, सहाफी है, खुद सख्ता महिरिन के इस नक्कारखाने में असली नकली का फ़र्क मिट गया है, चुकीं ज़्यादा तरनीम जाहिल ही एक दूसरे से गुफ्तगू कर रहे हैं इसलिये कनवा राजा ही राजा है. आज के दौर में अलग सोशल मीडिया में कोई खुद का राग नहीं अलाप रहा है तो क्या उस का दुनिया में कोई वज़ूद है ? ये सवाल सिर्फ़ मज़ाक नहीं रह गया है. जहाँ हर शख्श हर चीज़ जानता है और उसे मालुमात दिखने के लिये सिर्फ़ दो जुमले दरकार हैं वहाँ इतने तवील मज़ाकरे और बयानिये कौन सुनेगा ? मगर इस पेश-मंज़र को उलटकर देखा जा सकता है. जहाँ हर इज़हार-ऐ-बयान जारेहाना, शिद्दत, आमियाना सतहीपन और इख्तिसार की तरफ मायल है वहाँ ठंडे लहजे में एक जामेअ और मुदल्लिल अंदाज़-ए-बयान अपनी अलग शान रखता है. और आज के इस बेइंतिहा Visual अहद में दास्तानगोई जैसी जुबानी बयानिये की चीज़ शायद इसी लिये लोगों को लुभा रही हैं.

आज जबकी उर्दू पढ़ने और बोलने वालों की एक कसीर तादात उर्दू रस्मुलूखत से बे बहरा है. फ़ारूक़ी साहब बहुत ज़ोर दे के इस बात को दोहराते हैं कि मुझे कोई एक उर्दू पढ़ने वाला दे दीजिये, वह सौ रस्मुलूखत से नावाकिफ़ उर्दू के शायकीन पर भारी है. इसी तरह एक फ़नकार और नावाकिफ़ और एक समय ऐसा हो जो दास्तानगोई के लवाजिमात को बरत सके और समझ एके तो वह सौ दास्तान सुनाने वालों और सुनने वालों पर भारी है. जब तक ऐसा एक भी सुनने वाला ज़िंदा है दास्तानगोई का सफ़र पूरी ताबो -वो-तवानाई से इसी तरह चलता रहेगा.

इंशा अल्लाह- वमा तौफीकी इल्लाबिल्लाह